सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए जरूरी है साहित्य भी आर्गेनिक हो – प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी

प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी
परिचय-
प्रोफेसर पुष्पिता अवस्‍थी साहित्‍य क्षितिज पर एक जाना माना नाम है। हिन्‍दी साहित्‍य में उनके योगदान को देश ही नहीं विदेशों में भी सराहा जाता है। कविता, कहानी, आलोचना, क्रिएटिव लेखन के अलावा वह विदेशों में हिन्‍दी के प्रचार प्रसार में भी लगातार सक्रिय हैं। उत्‍तर प्रदेश के कानपुर में जन्‍मीं पुष्पिता जी की शिक्षा-दीक्षा और कर्मस्‍थली बनारस रही है। इसके बाद वह सूरीनाम आ गईं और मौजूदा समय में नीदरलैंड में रहते हुए चार दशक से ज्‍यादा की अपनी लेखन यात्रा को निरंतर आगे ले जा रही हैं। साहित्‍य में अपने योगदान के लिए दर्जनभर से भी ज्‍यादा सम्‍मान हासिल कर चुकी पुष्पिता जी आचार्य विनोबाभावे की अनुगामी हैं। उन्‍हीं के रास्‍ते पर चलकर गांधीवाद की अवधारणा को सच्‍चे अर्थों में आगे ले जा रही हैं। इनदिनों सूरीनाम के प्रवासी भारतीयों की पीढ़ा को दर्शाने वाले अपने नये उपन्‍यास ‘छिन्‍नमूल’ को लेकर चर्चा में हैं। हाल ही में इसका उर्दू भाषा में भी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। कुछ दिनों पहले उनसे वेबनार पर बातचीत हुई। इस दौरान उन्‍होंने मौजूदा दौर की चुनौतियों पर संक्षेप में अपने विचार साझा किये। प्रस्‍तुत आलेख इसी बातचीत का संपादित अंश है-

आजतक जिन मानकों को सीढ़ी बनाकर मनुष्य ने विकास की तमाम ऊंचाइयां हासिल की कोरोना ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। कुदरत ने इस बहाने एक सीख दी है कि सही वह नहीं जो बड़ा दिखने के लिए लोग करते हैं, बल्कि सही वह है जिसमें लोक कल्याण और संस्कृति का हित भी छिपा हो। येन-केन-प्रकारेण सिर्फ खुद को प्रोटेक्ट कर लेने से आप वायरल मुक्त नहीं हो सकते जबतक आसपास संरक्षित नहीं हो जाता खतरा टलने वाला नहीं। …और आसपास का संदूषण तभी मिटेगा जब सोच बदलेगी। आज साहित्य से लेकर समाज तक हर क्षेत्र संदूषित हो चुका है। लोग अजीब सी गलाकाट प्रतिस्पर्धा में लगे हुए हैं। किसान अधिक मुनाफा कमाने के लिए रासायनिक खाद और कीटनाशकों का इश्तेमाल कर रहे हैं तो साहित्य और लेखन से जुड़े कई लोग लेखन को पाप्युलर बनाने के लिए सस्ता-सनसनीखेज फार्मूला अपनाते हैं, बिना ये सोचे कि इससे पीढियों पर कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा? कई तो ऐसे हैं कि लेखक बनने के लिए दूसरों के क्रिएटिव वर्क को भी अपने नाम से चुराकर छपवा लेते हैं। मैं खुद ऐसे लेखक माफिया की शिकार हो चुकी हूं। लेख और कविता कहानी की तो छोड़िये मेरी प्रकाशित हो चुकी पुस्तकों को भी लोगों ने अपने नाम छपवा लिये। ऐसा करके आज वह बड़ी-बड़ी यूनीवर्सिटी में विजिटिंग फैकलिटी हैं। उन्होंने भले ही क्षणिक लाभ और शोहरत भी कमा लिया, लेकिन ये भूल गये हैं कि आखिर में ओरिजनल ही बचता है। चोरी का लेखन कभी लोकोन्मुख कैसे हो सकता है? रचनाकार के कथ्य और रचनात्मकता में अगर सच्चाई है तो लोग उसे सदियों तक अपने दिल में जगह देते हैं। हालांकि, मेरे पास उन्हें कानूनी सबक सिखाने का विकल्प मौजूद है, लेकिन इन पर ऊर्जा खर्च करने से बेहतर है इसका इश्तेमाल कहीं और किया जाय। इतना कम है कि मेरे रचनाकर्म को देश-विदेश में लोगों का लगातार प्यार, जुड़ाव और आशीर्वाद मिल रहा है। बहरहाल, ऐसे लोगों की चर्चा करके समय बर्बाद करने के बजाय हमे समस्या के समाधान की ओर बढ़ना होगा।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है ऐसा लिखा जाय जो लोकपरक हो, पाठकों को अपने देश, समाज और मिट्टी से प्रेम करना सिखाये, उन्हें नैतिक और चारित्रिक उत्थान की ओर ले जाये।
भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक परंपरा में ऐसी सोच कोई नई नहीं है। ‘सर्वेभवन्तु सुखिनः‘ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ जैसे आदर्श वाले हमारे देश में सदियों से ही ये परंपरा रही है। इसी कड़ी में तुलसी, कबीर, गुरू घासीराम और नामदेव जैसे तमाम संत कवियों का नाम लिया जा सकता है। इन्होंने भक्ति और आराधना के साथ ही लोकहित को भी सर्वोपर्य रखा। बुराइयों पर चोट और सामाजिक उत्थान को अपनी रचनाओं में जगह दी। इसी का परिणाम है मौजूदा समय में भी ये लोक जीवन का हिस्सा हैं, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पहरुये हैं। अकेले कबीर को उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड समेत पूरे उत्तर-मध्य और पूर्वोत्तर भारत में अलग-अलग तरीके से गाया जाता है। 
आज सांस्कृतिक प्रगति के लिए जरूरी है कि हमारा खानपान और विचार दुरुस्त हो। इसके लिए अन्न और मन दोनो को ही पवित्र रखना होगा। अन्न की पवित्रता के लिए जरूरी है हम पारंपरिक खेती की ओर लौटें। पारंपरिक खेती का हमारा मतलब आर्गेनिक खेती। अत्यधिक कीटनाशकों और रासायनिक खाद के इश्तेमाल से न सिर्फ धरती, पर्यावरण और छोटे-छोटे जीव-जंतुओं को नुकसान होता है, बल्कि इसका सबसे बड़ा खतरा स्वयं मनुष्य को है। ऐसे फल-फूल, अनाज और सब्जियों के प्रयोग से हमें कैंसर, दिल, पेट और त्वचा की तमाम बीमारियां होती हैं। रिकार्ड उठाके देख लीजिए पिछले तीन दशक से जितना देश में इन बीमारियों की बाढ़ आई पहले नहीं था। एक बीमार संतति, एक बीमार राष्ट्र कभी सांस्कृतिक क्रांति की अगुवाई नहीं कर सकता। इसलिए आज जरूरी है आर्गेनिक खेती यानीकि बगैर रासायनिक खाद और कीटनाशकों का इश्तेमाल किये हुए उन पारंपरिक तरीकों का इश्तेमाल कर उत्पादन को बढ़ावा दिया जाय जिसे हमारे पूर्वज हजारों साल से करते आए हैं। आज इस बारे में जागरूकता फैलाना लोगों को प्रेरित करना समय की मांग है।
कोरोना काल के बाद जिस तरह से भारतीय परंपरा, साहित्य, दर्शन और चिंतनधारा की ओर दुनिया सजग होकर देख रही है। इसके लिए भी जरूरी है इन मुद्दों की ओर गंभीरता से आगे बढ़ा जाय ताकि सुनहरे कल और जीवन का मार्ग प्रशस्त हो सके। अब समय आ गया है, खेती ही नहीं साहित्य भी आर्गेनिक हो। तभी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लक्ष्य को हासिल किया जा सकेगा। जिस तरह खेती रसायन से मुक्त होने से आदमी का शरीर स्वस्थ और निरोग होगा, उसी तरह पश्चिमी अवधारणा से मुक्त होने पर ही साहित्यक चिंतन की धारा पूरी तरह से राष्ट्रोन्मुख हो सकेगी।
प्रस्‍तुति- मनोज कृष्‍ण
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