क्या बिहार की हवा तेजस्वी के पक्ष में बहने लगी है ?
यह अलग बात है कि हम हवाओं पर कितना यक़ीन करें. लेकिन वारौफ़किस को फिर याद कर सकते हैं- हवा जब बहती है तो वह अपनी दिशा को सच भी साबित कर लेती है.
प्रियदर्शन.
एक बड़ी अंतर्दृष्टि से भरी किताब है- ‘टॉकिंग टु माई डॉटर: अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ कैपिटलिज़्म.’ इसके लेखक हैं यानिस वारौफ़किस, जो यूनान के संकट में वित्त मंत्री भी बने. अर्थशास्त्री और दार्शनिक के रूप में उनकी ख्याति रही है. वे अर्थशास्त्र के इस ज़िक्र में साहित्य और सिनेमा भी लाते हैं. किताब उन्होंने अपनी पंद्रह साल की बिटिया को संबोधित करते हुए लिखी है- तो बहुत सरल भाषा में है.
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रौफ़किस कहते हैं कि कई बार भविष्यवाणियां इसलिए सच हो जाती हैं कि वे होती हैं. वे न होतीं तो सच भी न होतीं. वे सोफोक्लीज़ के नाटक ‘इडिपस रेक्स’ का उदाहरण देते हैं. इडिपस के होने वाले सम्राट पिता ने ज्योतिषी से बच्चे का भविष्य पूछा तो ज्योतिषी ने बताया कि यह अपने पिता का हत्यारा होगा. इडिपस के पिता ने बच्चे को पैदा होते ही मार देने का आदेश दिया. रानी बच्चे को मार तो न सकीं, लेकिन एक सेवक को उन्होंने बच्चे को दूर एक पहाड़ पर रख आने को कहा. वहां से बच्चा दूसरे राज्य के राजा के यहां पला. यहां एक दूसरे ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि इडिपस अपनी माता से विवाह करेगा. दुखी इडिपस ने राज्य छोड़ दिया. वापसी में अपने पिता से ही उसका युद्ध हुआ जिसमें उसने पिता को पराजित किया और मार डाला. राज्य के नियम के अनुसार अपनी माता से उसका विवाह हुआ.
वारौफ़किस कहते हैं कि अगर यह भविष्यवाणी न हुई होती कि बच्चा पिता की हत्या करेगा तो शायद वह सच न हुई होती क्योंकि तब बच्चा अपने पिता के पास ही पलता. इसी तरह माता से विवाह की दूसरी भविष्यवाणी न हुई होती तो वह भी सच नहीं होती- क्योंकि तब इडिपस ने घर नहीं छोड़ा होता.
हालांकि वारौफ़किस जो बात कहते हैं, वह भारतीय राजनीति पर जैसे उलटी पड़ती है. यहां चुनावों में भविष्यवाणियां सिर के बल गिरती रही हैं. 1980 में किसी को इंदिरा गांधी की वापसी की उम्मीद नहीं थी. लेकिन वे शान से लौटीं. 1984 में अख़बार राजीव गांधी को हरा रहे थे. वे ऐसे जीते जैसे आज तक कोई नहीं जीत पाया. 2004 में अटल-आडवाणी की महाकाय छवि के आगे कांग्रेस बौनी लगती थी. मगर यूपीए को बहुमत मिला. 2014 में किसी ने नरेंद्र मोदी को इतना विराट बहुमत मिलने की उम्मीद नहीं की थी- 2019 में अपने ही रिकॉर्ड को तोड़ने की भी नहीं, लेकिन मोदी जी ने यह किया. राज्यों में चुनावी भविष्यवाणियों के मुंह के बल गिरने के उदाहरण इससे भी ज़्यादा हैं.
अब बिहार के चुनाव हमारे सामने हैं. सवाल यह है कि वारौफ़किस का सिद्धांत चलेगा या भारतीय राजनीति की सच्चाई? जवाब पहली नज़र में आसान है. अनुभव बताते हैं कि पूर्वानुमान लुढ़कते रहे हैं. लेकिन ऐसे भी कई मौक़े आए हैं जब लोगों ने हवा ठीक-ठीक पहचानी है और ऐसे भी मौक़े आए हैं जब हवा बनाई गई है. वारौफ़किस का सिद्धांत ऐसी हवा बनाने वालों को एक अवसर देता है.
तो बिहार में क्या कोई हवा है? इसके बारे में निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना मुश्किल है. दुर्भाग्य से बुरी तरह बंटे हुए समाज में बंटा हुआ मीडिया सिर्फ वही देखने को तैयार है जो वह देखना चाहता है. लेकिन कम से कम दो चीज़ें ऐसी हैं जो फिलहाल लोगों को एक राय बनाने का अवसर दे रही हैं. पहली बात तो हाल में आए वे चुनाव सर्वेक्षण हैं जो बता रहे हैं कि एनडीए और महागठबंधन के बीच का फ़ासला कम हो रहा है. इसी तरह मुख्यमंत्री पद की प्रतिद्वंद्विता के मामले में भी नीतीश और तेजस्वी के बीच की दूरी घटी है. बेशक, अब भी नीतीश आगे हैं, लेकिन पहले उनकी जो असंदिग्ध और अलंघ्य लगने वाली बढ़त होती थी, वह सिमट रही है.
दूसरी बात बिहार में हो रही रैलियों में आ रहे चेहरों को करीब से देखने से साफ़ होती है. इस बात के ज़िक्र से पहले बरसों पहले पढ़े एक राजनीतिक किस्से का ज़िक्र समीचीन होगा. सन 77 में राजस्थान में कहीं इंदिरा गांधी की रैली हो रही थी. मुख्यमंत्री (संभवतः हरिदेव जोशी) ने भीड़ देखकर इंदिरा जी से कहा कि उनकी जीत पक्की है. इंदिरा गांधी ने कहा कि आप भीड़ देख रहे हैं, भीड़ में मौजूद चेहरे नहीं देख रहे. वे बुझे हुए चेहरे हैं.
चार दशक से ज़्यादा पुरानी यह कहानी बिहार की रैलियां देखते हुए याद आ रही है. तेजस्वी की रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ में एक स्वतःस्फूर्त उत्साह दिखता है, सत्ता-परिवर्तन का जज़्बा दिखता है. जबकि प्रधानमंत्री की पहले दिन की रैलियों में भी भीड़ में ऐसा उत्साह नहीं दिखा. जिस प्रधानमंत्री के मंच पर आते ही मोदी-मोदी के नारे लगा करते हों, उनके सामने भीड़ उबासी लेती या अन्यमनस्क दिखे तो इसका भी अपना एक इशारा है. इस बात को फिर नीतीश और तेजस्वी की मुद्राओं में देखा जा सकता है. नीतीश कुमार में उनकी पुरानी सौम्यता की जगह एक चिड़चिड़ाहट ने ले ली है, तेजस्वी के चेहरे पर एक उत्साह दिखता है.
बेशक, इस चिड़चिड़ाहट में कुछ योगदान चिराग पासवान का भी होगा जिनके साथ बीजेपी के रहस्यमय रिश्ते की चर्चा अपने गठबंधन के भीतर नीतीश को बार-बार विचलित करती होगी. ख़ास बात यह है कि लालू यादव के भदेस से काफ़ी दूर खड़े तेजस्वी ज़रूरत पड़ने पर चुटकियां लेने में कोई कसर नहीं छोड़ते.
ख़ैर, फिर दुहराने की ज़रूरत है कि ऐसे इशारों या ऐसी मुद्राओं से चुनाव नहीं जीते जाते. जनता का मन पढ़ना-पकड़ना आसान नहीं होता. फिर आज के चुनावों में पैसे और बाहुबल से भी नतीजे प्रभावित किए जाते हैं. अब तो जिस तरह हर मामले में एजेंसियों का दुरुपयोग हो रहा है, उसे देखते हुए अंदेशा होता है कि बिहार चुनाव में भी न हो. वैसे यह न भी हो तब भी नतीजे अप्रत्याशित हो सकते हैं. भारतीय राजनीति में यह प्रधानमंत्री मोदी के जादू का दौर है. ऐसा जादू जब चलता है तो सारे मुद्दे किनारे रह जाते हैं.
अगर वह जादू बिहार में अब भी चला तो हवा जिसकी भी हो, जीत बीजेपी की होगी. वैसे इस लिहाज से यह प्रधानमंत्री के जादू की परीक्षा का भी चुनाव है. आख़िर वे इस चुनाव के पहले दौर में ही बारह रैलियां कर रहे हैं. वैसे चिराग पासवान को एक क्रेडिट और देना होगा. वे बहुत सफलतापूर्वक चुनावों को वास्तविक मुद्दों तक खींच लाए हैं. बिहार में रोज़गार का सवाल अचानक केंद्रीय सवाल बन गया है. हालांकि बीजेपी ने अपनी ओर से इसके ध्रुवीकरण की थोड़ी-बहुत कोशिश की.
केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय यहां तक बोल गए कि अगर आरजेडी सत्ता में आई तो कश्मीर के आतंकवादियों को पनाह मिलेगी. प्रधानमंत्री ने भी अपनी रैलियों में धारा 370 से लेकर अयोध्या तक के जिक्र से यह कोशिश की कि मूल मुद्दे से चुनाव भटके. यही नहीं, मुफ़्त कोरोना का टीका देने का फ़र्ज़ी वादा कर बीजेपी ने एक और विवाद खड़ा किया. जिस टीके का वजूद भी नहीं है, जिसके बन जाने के बाद वैसे ही भारत में मुफ़्त बांटे जाने का प्रावधान है, उसे भी बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल कर लिया.
लेकिन अभी ये चुनाव अब भी रोज़गार के सवाल पर अटके पड़े हैं. फिर आरजेडी और लालू-राबड़ी युग के भ्रष्टाचार के आरोपों के जवाब में तेजस्वी ने 2015 में प्रधानमंत्री का वह वह वक्तव्य खोज निकाला है जिसमें उन्होंने नीतीश सरकार पर 35 घोटालों का आरोप लगाया था. तेजस्वी दावा कर रहे हैं कि पिछले पांच साल में इनमें 25 घोटाले और जुड़ गए हैं.
बेशक, बिहार के लिए वादों की यह सौगात काफ़ी नहीं होगी. दरअसल जिस संवेदनशीलता और समग्रता के साथ किसी भी राज्य के समावेशी विकास के लिए एक संपूर्ण योजना की ज़रूरत है, उसका अभाव हमारे सारे राजनीतिक दलों में है. वे घोषणाएं करते हैं, उसे ही विज़न डॉक्युमेंट बताते हैं, लेकिन एक समाज के रूप में सबको साथ लेकर चलने वाले मानवीय विकास का ख़ाका बनाने का काम नहीं करते. यह एक ठहरी हुई- लगभग सड़ी हुई- राजनीतिक संस्कृति की निशानी है.
लेकिन इसी मोड़ पर बिहार को नए ख़ून की ज़रूरत है. डॉक्टर राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि सत्ता की रोटी को उलटते-पलटते रहना चाहिए, नहीं तो वह जल जाती है. बिहार में पंद्रह साल से यह रोटी तवे पर चढ़ी हुई है. देखना है, बिहार की जनता अब यह रोटी पलटती है या पुराने चूल्हे से ही काम चलाती है. लेकिन हवाएं फिलहाल कुछ और इशारा कर रही हैं. यह अलग बात है कि हम हवाओं पर कितना यक़ीन करें. लेकिन वारौफ़किस को फिर याद कर सकते हैं- हवा जब बहती है तो वह अपनी दिशा को सच भी साबित कर लेती है.
(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं. आलेख एनडीटीवी की वेबसाइट से साभार ली गई है)
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