अथ् श्री ठेका वाले शिक्षक कथा
भाजपा से अलगाव के बाद सूबे के राजा रोज नई परेशानियों से घिरते नजर आ रहे हैं. बगहा में आदिवासियों पर पुलिस फायरिंग, बोधगया बम बलास्ट, मशरख मिड-डे मील कांड से उनकी किरकिरी हो चुकी है. आने वाले दिनों में जोरदार विरोध करने वाले नियोजित शिक्षक नए सिरे से संगठित होकर उनकी परेशानियों को और बढ़Þाने वाले हैं. समय रहते मुख्यमंत्री अगर उन्हें संतुष्ट नहीं करते हैं, तो ए शिक्षक उन्हें किस हद तक परेशान कर सकते हैं, इसका अंदाजा उन्हें अपनी पहले की सेवा यात्रा के दौरान लग चुका है. अब तो मजबूत विपक्ष के रूप में भाजपा भी शिक्षकों के साथ खड़ी नजर आ रही है.
लगभग तीन लाख की संख्या वाले ये नियोजित शिक्षक कभी नीतीश के लाडले कहे जाते थे. नीतीश की पहली और दूसरी पारी में इन शिक्षकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन लगातार आर्थिक उपेक्षा झेल रहे ये शिक्षक अब उग्र हो चले हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि विकसित हो रहे बिहार का राग अलापने वाले नीतीश ने सा़ढे सात साल के कार्यकाल में कभी उनकी बेहतरी के बारे में चर्चा तक नहीं की. गौरतलब है कि ठेके पर शिक्षकों के रखे जाने का चलन 2003 से शुरू हुआ. इस समय ये नियोजित शिक्षक शिक्षा मित्र कहलाते थे. मात्र पंद्रह सौ रुपए प्रति माह पर उनकी बहाली हुई थी. साथ ही यह भी कहा गया था कि ग्यारह महीने का ही अनुबंध होगा और अधिकतम तीन बार सेवा विस्तार दिया जाएगा. इसके बाद नीतीश की सरकार इस वादे के साथ सत्ता में आई कि हम सरकार में आते ही उन्हें स्थाई कर देंगे. एनडीए-1 बनते ही पहली बार नवंबर 2005 में शिक्षा मित्रों का जबरदस्त विरोध प्रदर्शन पटना में हुआ. धीरे-धीरे अप्रशिक्षित शिक्षकों की एक बड़ी फौज विद्यालयों में खड़ी हो चुकी थी. इसके बाद नीतीश सरकार पर पहली बार केंद्रीय शिक्षण संस्थाओं और सर्व शिक्षा अभियान का डंडा चला, जिसमें कहा गया कि इन शिक्षकों को प्रशिक्षित करवाइए. इस बाबत इग्नू और एनओयू से सम्पर्क साधा गया, जिसका सीधा जवाब था कि हम प्रशिक्षण तो शिक्षकों को देते हैं, लेकिन शिक्षा मित्र जैसे लोगों के लिए हमारे पास कोई प्रावधान ही नहीं है. इसके बाद सरकार जुगाड़ में भिड़ती है और एक प्रयोग के रूप में बिहार पंचायत प्रखंड नगर शिक्षक नियोजन नियमावली 2006 बनाया जाता है. यह नियमावली उन शिक्षा मित्रों को शिक्षक बना देती है. इस नियमावली में उनकी सेवा की अवधि को निर्धारित कर साठ वर्ष कर दिया जाता है. इसके अलावे पी.एफ, वेतन वृद्धि, टी.ए., डी.ए जैसी अन्य जरूरी सुविधाओं को पहले की तरह ही नजरंदाज कर दिया जाता है.
बहरहाल, शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का जिम्मा इग्नू को दिया गया. 2007-09 में 40 हजार शिक्षकों के पहले बैच को प्रशिक्षण दिया गया और फिर 2008-10 और 2009-11 में इतने ही अप्रशिक्षित शिक्षकों को और दीक्षित किया गया. फिलहाल 2010-12 के रूप में चौथे बैच में 25 से 30 हजार शिक्षकों को प्रशिक्षित करना है, लेकिन अभी इनका प्रशिक्षण शुरू नहीं हुआ है. अब तक एक लाख बीस हजार शिक्षक प्रशिक्षित हो चुके हैं. जिस डीपीई यानी डिप्लोमा इन प्राइमरी एजुकेशन की ट्रेनिंग इन शिक्षकों को दी गई, उसके बारे में नेशनल काउंसिल आॅफ टीचर्स एजुकेशन (एनसीटीई) कहती है कि यह बिहार के लिए मान्य है ही नहीं. इस बात का खुलासा आरटीआई कार्यकर्ता और प्राथमिक साझा मंच के रंजन कुमार को मिले एक पत्र से होता है. रंजन हमें कुछ कागजात देते हैं. यह सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के होते हैं. इनमें पहला इग्नू के पटना सेंटर से मिली सूचना से संबंधित है. इस सेंटर से यह जानकारी मांगी जाती है कि बिहार के नियोजित शिक्षकों को इग्नू द्वारा डीपीई का जो कोर्स कराया जा रहा है, क्या उसकी मान्यता एनसीटीई से है और अब उस कोर्स के बाद भी इग्नू के सहयोग से जो छह माह के लिए एक और प्रशिक्षण कोर्स की तैयारी है, उसका प्रारूप क्या है? इग्नू के डीपीई कार्यक्रम की समन्वयक विभा जोशी का जवाब आता है कि बिहार में डीपीई कार्यक्रम 2007 में बिहार सरकार के साथ इग्नू के द्वारा एक एमओयू के अंतर्गत चलाया गया था और इस कार्यक्रम को एनसीटीई से मान्यता प्राप्त करने की जिम्मेदारी बिहार सरकार की थी. अत: एनसीटीई से मान्यता के संबंध में कोई सवाल मानव संसाधन विकास मंत्रालय, बिहार सरकार अथवा बिहार शिक्षा परियोजना के निदेशक से करें. जहां तक आगामी प्रशिक्षण कोर्स की बात है, तो वह भी बिहार सरकार के अनुरोध पर करवाया गया था.
एनसीटीई कहती है कि हमने इग्नू के कोर्स का अध्ययन किया है. इसमें बिहार के प्रारंभिक शिक्षा से संबंधित कोई बात नहीं है. हैरत की बात यह है कि एनसीटीई के इतना कहने के बाद बिहार सरकार छह महीने के अतिरिक्त उस इनरिचमेंट कोर्स को बिना एनसीटीई के लिखित आदेश के इग्नू से करवाती है. अगर सीधा-सीधा गणित लगाया जाय, तो बिहार में कुल 70 करोड़ की राशि के दुरुपयोग का मामला है.
रंजन को सूचना के अधिकार से मिले दूसरे कागजात में एनसीटीई डीपीई के बारे में कहती है कि उक्त कोर्स को सिर्फ पूर्वोत्तर राज्यों में चलाने के लिए इग्नू को मान्यता दी गई थी. शिक्षा मंत्री पीके शाही कहते हैं कि यह इग्नू की करनी है कि वह अब तक इसकी मान्यता नहीं ले सका है. हम तो इसके लिए 15 दफा तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा मंत्री सिब्बल से मिल चुके हैं. जब इग्नू से इस प्रशिक्षण के लिए करार हुआ था, तब मैं शिक्षा मंत्री नहीं था, लेकिन इग्नू यह कागज पर दिखाए कि बिहार सरकार ने इसे किस रूप में और कब आश्वासन दिया था कि डीपीई की मान्यता वह ले लेगा.
डीपीई में विद्यार्थी बने शिक्षकों का नामांकन करवाने के बाद बिहार सरकार के शिक्षा विभाग ने कहा था कि चार वर्षों के अंदर इसमें उत्तीर्ण होना अनिवार्य है. कुछ शिक्षक चार वर्षों तक उत्तीर्ण नहीं हो सके हैं. ऐसे अनुत्तीर्ण शिक्षकों को सेवा में बनाए रखने के लिए विभाग जिम्मेवार नहीं है. ऐसे शिक्षकों को एक मौका और देते हुए अगली परीक्षा में उत्तीर्ण होना अनिवार्य है. इसमें भी जो पास नहीं होंगे, उन्हें सेवा से हटाने के लिए संबंधित नियोजन इकाई को निर्देश दिया जाएगा. साथ ही बिहार पंचायत प्रखंड नगर शिक्षक नियोजन नियमावली 2006 में प्रावधान है कि अगर नियोजित शिक्षक छह साल के अंदर प्रशिक्षित शिक्षक की पात्रता हासिल नहीं करते हैं, तो उन्हें सेवामुक्त कर दिया जाएगा. वर्तमान में लगभग 80 हजार शिक्षकों का छह साल पूरा हो गया है. अब सवाल उठता है कि क्या बिहार सरकार की गलतियों का खामियाजा उन शिक्षकों को भुगतना प़डेगा.
प्राथमिक शिक्षक संघर्ष साझा मंच डीपीई मामले में राज्य सरकार की लापरवाही को लेकर हस्ताक्षर अभियान चला रही है. हस्ताक्षर अभियान में शामिल शिक्षकों ने कहा है कि हमने सरकार के निर्देश पर दो वर्षों की जगह ढाई वर्षों का प्रशिक्षण लिया. बावजूद इसके, हमें प्रशिक्षित शिक्षकों के समान सुविधाएं नहीं मिल रही है. सरकार यह कहते हुए पल्ला नहीं झाड़ सकती है कि इस प्रशिक्षण को एनसीटीई की मान्यता नहीं मिली है, जब मिलेगी, तब प्रशिक्षित शिक्षकों वाली सुविधाएं देंगे. साझा मंच के मुख्य सचेतक विनय कुमार ने सरकार के इस कथन को अत्यंत ही निराशाजनक और गैर जिम्मेवाराना बताते हुए यह कहा कि हम सभी शिक्षकों ने डीपीई प्रशिक्षण इग्नू से प्राप्त करने संबंधी सरकार के विभागीय निर्देश का अक्षरश: पालन किया है. अब यह प्रशिक्षण एनसीटीई से मान्यता प्राप्त नहीं है, यह कह कर सरकार अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती है. इस मुद्दे पर हम सभी शिक्षक निर्दोष हैं और सरकारी धोखाधड़ी के शिकार हुए हैं.
गौरतलब है कि यह अकेले बिहार का मामला नहीं है. बिहार के साथ-साथ झारखंड और छत्तीसगढ़ के नियोजित शिक्षक भी इसी लापरवाही की मार झेल रहे हैं. आंकड़े बताते हैं कि तीन राज्यों में बिना इस बात की समीक्षा किए कि इग्नू के डीपीई ट्रेनिंग को एनसीटीई की मान्यता है या नहीं, इस ट्रेनिंग पर वर्ष 2005 से अब तक बिहार, झारखंड व छत्तीसगढ़ के राज्य सरकारों की लापरवाही के कारण साढ़े तीन लाख शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए सरकारी खजाने से 175 करोड़ रुपए फूंक दिए गए. साझा मंच के रंजन कहते हैं कि हम एनसीटीई से अपील करते हैं कि राज्य सरकार की अकर्मण्यता की सजा इन शिक्षकों को न दे. इन्हें प्रशिक्षित मानने के लिए राज्य सरकार को उचित निर्देश दे. रंजन आगे कहते हैं कि अगर हम शिक्षकों के साथ ज्यादती हुई, तो जरूरत पड़ने पर साझा मंच एनसीटीई के मुख्यालय के समक्ष आमरण अनशन करेगी.
बताते चलें कि बिहार में शिक्षकों की नौकरी इतनी हास्यास्पद और उपेक्षित कभी नहीं रही है. इसके पीछे भी राजनीतिक अकर्मण्यता और शिक्षा के प्रति उदासीन रवैए की एक अनूठी कहानी है. बहुत पहले शिक्षक बनने में रुचि रखने वाले उम्मीदवार प्रशिक्षण लेते थे और उनके नाम की सूचि बनाई जाती थी. जैसे-जैसे शिक्षकों की आवश्यकता होती थी, उनकी नियुक्ति इसी सूचि से क्रमवार किया जाता था. ठीक इसके बाद पहला बदलाव लेकर आया बिहार प्रारंभिक विद्यालय शिक्षक नियुक्ति नियमावली 1991. इस नियमावली में कहा गया कि अब बीपीएससी परीक्षा लेगी और नियुक्ति करेगी. 1994 में पहली बहाली हुई, जिसमें पच्चीस हजार शिक्षक बहाल हुए. इसकी दूसरी बहाली, जो सिर्फ एससी-एसटी उम्मीदवारों के लिए थी, 1999 में हुई. इस बहाली में छह हजार शिक्षकों की बहाली करनी थी, जिसमें चौंतिस सौ उम्मीदवारों का रिजल्ट आया. हैरत की बात यह है कि इस चौंतिस सौ में से अब तक मात्र उनत्तीस सौ शिक्षकों की ही बहाली की गई है. इसी तरह साल 2000 में दस हजार शिक्षकों की बहाली हुई. इसके बाद बीपीएससी ने चौथे चरण की बहाली के लिए आवेदन भी मंगवा लिए, लेकिन आगे मामला ठंढे बस्ते में चला गया. ठीक इसके बाद 2003 में बिहार सरकार ने शिक्षा मित्र जैसा पद खोज निकाला और कहा गया कि यह शिक्षकों की बहाली हो जाने तक वैकल्पिक व्यवस्था है. शिक्षा के क्षेत्र में सारे झोल की शुरुआत ही यहीं से हुई थी. खैर, बिहार के बदलते राजनीतिक माहौल में इन नियोजित शिक्षकों के साथ अब भाजपा भी आ खड़ी हुई है. भाजपा विधान मंडल दल के नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि राज्य का भविष्य बनाने वाले इन शिक्षकों का वेतन दुगना होना चाहिए. सरकार उनके वेतन को कम से कम चपरासी के 14 हजार प्रति माह के वेतन से पांच सौ रुपएा अधिक तो करे ही. ( लेखक विजय कुमार प्रसाद शिक्षा मित्र 2003 हैं)
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