संजय तिवारी
मैं सामान्य वर्ग से ही हूं। न मेरी आय आठ लाख से ज्यादा है और न ही मेरे पास पांच एकड़ जमीन है। फिर भी पता नहीं क्यों अपने जैसे लोगों के लिए ही आरक्षण का यह प्रावधान पाकर खुशी महसूस नहीं हो रही.
जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे ही इस आरक्षित व्यवस्था के दोनों पहलू हैं। कल से लेकर आज तक हर पहलू बार बार दिमाग में आ जा रहे हैं। लेकिन मन न तो इस आरक्षण को स्वीकार कर पा रहा है, और न ही पूरी तरह से नकार पा रहा है।
पहली बार आरक्षण की व्यवस्था करते हुए धर्म की सीमा भी टूट गयी। जो गरीब सवर्ण अब तक हिन्दू मुसलमान करते थे अब वो अब सवर्ण ईसाई और उच्च जाति वाले मुसलमानों के साथ खड़े कर दिये गये। इसी तरह सामाजिक आधार को बदलकर आरक्षण के इतिहास में पहली बार आर्थिक आधार को स्वीकार कर लिया गया है। इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? पचास प्रतिशत की संवैधानिक सीमा भी लांघकर 60 प्रतिशत कर दी गयी है। क्या भविष्य में यह 85 प्रतिशत भी हो सकती है?
फिर, ये दस प्रतिशत तो दिया गया है पचास प्रतिशत में ही। तो इसका मतलब क्या रह जाता है? यह तो एक तरह से क्रीमी लेयर बनाने जैसा प्रयास है। तो फिर इसमें उसे हासिल क्या हुआ जिसके लिए पहले से सीमा निर्धारित थी? ऐसे ही और भी न जाने कितने सवाल। अब सवर्ण समाज के लोग किस मुंह से आरक्षण का विरोध कर पायेंगे? और सबसे आखिर में सबसे जटिल सवाल कि क्या ये एक बुद्धिमत्ता भरा फैसला है या फिर नोटबंदी की ही तरह मोदी की एक और चौंकानेवाली कार्रवाई है?
( वरिष्ठ पत्रकार व www.visfot.com के संपादक संजय तिवारी के फेसबुक टाइमल लाइन से साभार)
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