अंत का आरम्भ ?
ध्रुव गुप्त
आपसी सहमति से बनाया गया विवाहेतर यौन-संबंध अब अपराध नहीं रहा। न विवाहिता स्त्री के लिए, न विवाहित पुरुष के लिए। महिलाओं के हित में संशोधन की जगह भारतीय दंड विधान की धारा 497 की समाप्ति का सुप्रीम कोर्ट का आदेश वैयक्तिक स्वतंत्रता, लैंगिक समानता और समाज की सोच में आए बदलाव की दृष्टि से प्रगतिशील फैसला जरूर लगता है, लेकिन इस फैसले का एक ऐसा भी पक्ष है जिसके बारे में विचार करना न्यायालय को शायद जरुरी नहीं लगा। क्या हमारा समाज सोच के उस स्तर तक पहुंच गया है जहां पत्नी पति के और पति पत्नी के विवाहेतर रिश्तों को सहजता से स्वीकार कर सके ? या हमारे बच्चे अपनी मां और पिता के ऐसे रिश्तों के साथ सहज रह सकें ? पश्चिमी देशों में ऐसी सोच बनने जरूर लगी है, लेकिन वहां भी यह आरंभिक अवस्था में ही है। हमारे यहां अभी ऐसी स्थिति आने में लंबा वक़्त लगेगा। मानव सभ्यता के इतिहास में परिवार की परिकल्पना शायद सबसे प्रगतिशील सोच रही थी। इसने समाज को यौन अराजक होने से भी बचाया, स्त्री और पुरुष दोनों को सुरक्षा और भावनात्मक स्थायित्व भी दिया और आने वाली संतानों की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक परवरिश की बेहतरीन व्यवस्था भी की। परदे के पीछे विवाहेतर संबंध हर युग में बनते रहे हैं और भविष्य में भी बनते रहेंगे। छिटफुट अपवादों को छोड़ दें तो इससे परिवार नाम की संस्था पर अबतक कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ा था। अब शादी के बाहर सेक्स को कानूनी मान्यता के साथ समाज में यौन अराजकता, परिवारों की टूटन और बच्चों में अकेलेपन और अवसाद की शुरुआत तो नहीं होने जा रही है ?
विवाहेतर रिश्तों पर सुप्रीम कोर्ट का आज का फैसला कुछ ऐसे सवाल लेकर आया है, जिनका तत्काल जवाब नहीं खोजा गया तो परिवार नाम की संस्था शायद नहीं बचेगी। और अगर परिवार नहीं बचा तो क्या बचा रहेगा हमारे पास ?
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