मुसलमान : वक़्त बदला, हालात नहीं

फ़िरदौस ख़ान

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मुलाक़ात कर रहे हैंअगर वे मुसलमानों के हालात जानने के लिए ऐसा कर रहे हैं, तो उन्हें वरिष्ठ पत्रकार फ़िरदौस ख़ान की ये विशेष रिपोर्ट ज़रूर पढ़नी चाहिए

देश को आज़ाद हुए सात दशक बीत चुके हैं। इस दौरान बहुत कुछ बदलगया, लेकिन अगर कहीं कुछ नहीं बदला है, तो वह है देश के मुसलमानोंकी हालत। यह बेहद अफ़सोस की बात है कि आज़ादी के सात दशकबाद भी मुसलमानों की हालत अच्छी नहीं है। उन्हें उन्नति के लिए समानअवसर नहीं मिल रहे हैं। नतीजतन, मुसलमान सामाजिक, आर्थिक औरशैक्षणिक रूप से बेहद पिछ्ड़े हुए हैं।

संपत्ति के मामले में भी मुसलमानों की हालत बेहद ख़स्ता है। ग्रामीणइलाक़ों में 62.2 फ़ीसद मुसलमान भूमिहीन हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 43 फ़ीसद है। वक़्फ़ संपत्तियों यहां तक की क़ब्रिस्तानों पर भी बहुसंख्यकोंका क़ब्ज़ा है। शर्मनाक बात तो यह भी है कि इन मामलों में वक़्फ़ बोर्डके अधिकारियों की मिलीभगत शामिल रहती है। मुसलमानों को रोज़गारके अच्छे मौक़े भी बहुत कम ही मिल पाते हैं। इसलिए ज़्यादार मुसलमानछोटे-मोटे कामधंधे करके ही अपना गुज़ारा कर रहे हैं। साल 2001 कीजनगणना के मुताबिक़ मुसलमानों की आबादी 13.43 फ़ीसद है, लेकिनसरकारी नौकरियों में मुसलमानों की हिस्सेदारी बहुत कम है। सच्चरसमिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ सुरक्षा बलों में कार्यरत 18 लाख 89 हज़ार 134 जवनों में 60 हज़ार 517 मुसलमान हैं। सार्वजनिक इकाइयोंको छोड़कर सरकारी रोज़गारों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज़ 4.9 फ़ीसद है। सुरक्षा बलों में 3.2 फ़ीसद, भारतीय प्रशासनिक सेवा में 30, भारतीय विदेश सेवा में 1.8, भारतीय पुलिस सेवा में 4, राज्यस्तरीयविभागों में 6.3, रेलवे में 4.5, बैंक और रिज़र्व बैंक में 2.2, विश्वविद्यालयों में 4.7,  डाक सेवा में 5, केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में3.3 और राज्यों के सार्वजनिक उपक्रमों में 10.8 फ़ीसद मुसलमान हैं। ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले 60 फ़ीसद मुसलमान मज़दूरी करते हैं।

शिक्षा के मामले में भी मुसलमानों की हालत बेहद ख़राब है। शहरीइलाक़ों में 60 फ़ीसद मुसलमानों ने कभी स्कूल में क़दम तक नहीं रखाहै। हालत यह है कि शहरों में 3.1 फ़ीसद मुसलमान ही स्नातक हैं, जबकि ग्रामीण इलाक़ों में यह दर सिर्फ़ 0.8 फ़ीसद ही है। साल 2001 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ मुसलमान दूसरे धर्मों के लोगों केमुक़ाबले शिक्षा के मामले में बहुत पीछे है। देश के तक़रीबन सभी राज्योंमें कमोबेश यही हालत है। शहरी मुसलमानों की साक्षरता की दर बाक़ीशहरी आबादी के मुक़ाबले 19 फ़ीसद कम है। ग़ौरतलब है कि साल2001 में देश के कुल 7.1 करोड़ मुस्लिम पुरुषों में सिर्फ़ 55 फ़ीसद हीसाक्षर थे, जबकि 46।1 करोड़ ग़ैर मुसलमानों में यह दर 64.5 फ़ीसदथी। देश की 6.7 करोड़ मुस्लिम महिलाओं में सिर्फ़ 41 फ़ीसद महिलाएंसाक्षर थीं, जबकि अन्य धर्मों की 43 करोड़ महिलाओं में 46 फ़ीसदमहिलाएं साक्षर थीं। स्कूलों में मुस्लिम लड़कियों की संख्या अनुसूचितजाति एवं जनजातियों के मुक़ाबले तीन फ़ीसद कम थी। 101 मुस्लिममहिलाओं में से सिर्फ़ एक मुस्लिम महिला स्नातक है, जबकि 37 ग़ैरमुसलमानों में से एक महिला स्नातक है। देश के हाईस्कूल स्तर परमुसलमानों की मौजूदगी महज़ 7.2 फ़ीसद है। ग़ैर मुस्लिमों के मुक़ाबले44 फ़ीसद कम मुस्लिम विद्यार्थी सीनियर स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर पातेहैं, जबकि महाविद्यालयों में इनकी दर 6.5 फ़ीसद है। स्नातक की डिग्रीप्राप्त करने वाले मुसलमानों में सिर्फ़ 16 फ़ीसद ही स्नातकोत्तर की डिग्रीहासिल कर पाते हैं। मुसलमानों के 4 फ़ीसद बच्चे मदरसों में पढ़ते हैं, जबकि 66 फ़ीसद सरकारी स्कूलों और 30 फ़ीसद बच्चे निजी स्कूलों मेंपढ़ते हैं।

 

मुसलमानों को सरकारी योजनाओं का भी कोई ख़ास फ़ायदा नहीं मिलपाता है। ग्रामीण इलाक़ों में ग़रीबी रेखा से नीचे के 94.9 फ़ीसद मुस्लिमपरिवारों को मुफ़्त राशन नहीं मिल पाता है। इसी तरह सिर्फ़ 3.2 फ़ीसदमुसलमानों को ही सब्सिडी वाला क़र्ज़ मिलता है और महज़ 1.9 फ़ीसदमुसलमान सरकारी अनुदान वाले खाद्य कार्यक्रमों से फ़ायदा उठा पाते हैं। उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है।

देश में सांप्रदायिकता, ग़रीबी और अशिक्षा की वजह से मुसलमानों केसाथ नाइंसाफ़ी की जाती रही है। देश के किसी भी हिस्से में अगर कोईआतंकी वारदात हो जाती है, तो सुरक्षा एजेंसियां फ़ौरन मुसलमानों परशिकंजा कस देती हैं। पुलिस का भी यही रवैया रहता है। कई ऐसे मामलेसामने आ चुके हैं, जिनके लिए बेक़सूर मुसलमानों को गिरफ़्तार कियागया, उन्हें बहुसंख्यक वर्ग के लोगों ने अंजाम दिया था। लेकिन इस सबकेबावजूद सुरक्षा एजेंसियों से लेकर मीडिया की भूमिका भी मुसलमानों कोफ़ंसाने की ही रहती है। नतीजतन, देशभर की जेलों में मुसलमान क़ैदियोंकी तादाद उनकी आबादी के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा है। सच्चर समितिकी रिपोर्ट में भी कहा गया है कि देश में मुसलमानों की आबादी जहांतक़रीबन 13.43 फ़ीसद है,  वहीं जेलों में उनकी तादाद क़रीब 21 फ़ीसद है। सच्चर समिति ने 2006 में कहा था कि सबसे ज़्यादा मुस्लिमक़ैदी महाराष्ट्र की जेलों में हैं, लेकिन मौजूदा आंकड़ों के मुताबिक़, मुस्लिम क़ैदियों के मामले में पश्चिम बंगाल सबसे ऊपर है, जबकिमहाराष्ट्र दूसरे स्थान पर है। नेशनल क्राइम रिकॉड्‌र्स ब्यूरो के आंकड़ों(दिसंबर 2010 तक) के मुताबिक़, पश्चिम बंगाल में 47 फ़ीसद मुस्लिमक़ैदी हैं, जबकि महाराष्ट्र में यह दर 32 फ़ीसद है। उत्तर प्रदेश में 26 फ़ीसद और बिहार में 23 फ़ीसद मुसलमान जेलों में हैं। क़ाबिले-ग़ौर यहभी है कि इन प्रदेशों में विचाराधीन मुस्लिम क़ैदियों की तादादसजायाफ़्ता मुस्लिम क़ैदियों से कई गुना ज़्यादा है। नेशनल क्राइमरिकॉड्‌र्स ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश की कुल 1,393 जेलों में 3 लाख 68 हज़ार 998 क़ैदी हैं, जिनमें 76 हज़ार 701 मुस्लिम क़ैदी हैं। इनमें सिर्फ़ 22 हज़ार 672 मुस्लिम क़ैदी ऐसे हैं, जिन्हें सज़ा सुनाई जाचुकी है, जबकि 53 हज़ार 312 मुस्लिम क़ैदी विचाराधीन हैं। देश कीलचर क़ानून व्यवस्था ज़गज़ाहिर है कि यहां किसी भी मामले की सुनवाईमें बरसों लग जाते हैं। ऐसी हालत में विचाराधीन क़ैदियों की उम्र जेल मेंही गुज़र जाती है एक अन्य रिपोर्ट की मानें तो ज़्यादातर क़ैदियों काआतंकवाद या संगठित अपराध से वास्ता नहीं है।

मुसलमानों की बदतर हालत के लिए सियासी तौर पर मुस्लिमप्रतिनिधित्व का कम और कमज़ोर होना भी है। मुसलमानों की आबादीके लिहाज़ से सियासत में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है। देश मेंतक़रीबन 15 करोड़ मुसलमान हैं। कुल मुस्लिम आबादी में से तक़रीबन23.7 फ़ीसद मुसलमान उत्तर प्रदेश में रहते हैं। बिहार, पश्चिम बंगाल औरमहाराष्ट्र में एक-एक करोड़ मुसलमान रहते हैं। केरल, आंध्र प्रदेश, असम, जम्मू-कश्मीर और कर्नाटक में 25 लाख से एक करोड़ के बीच मुसलमानरहते हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड में से प्रत्येक राज्य में तक़रीबन30 से 50 लाख मुसलमान रहते हैं। दिल्ली, हरियाणा और उत्तराखंड में10 से 20 लाख मुसलमान रहते हैं। देश के नौ ज़िलों में मुसलमानों कीआबादी 75 फ़ीसद से ज़्यादा है। मुसलमानों की अपनी कोई सियासीपार्टी नहीं है। सियासी दल बहुत कम मुसलमानों को ही चुनाव मैदान मेंउतारते हैं। इनमें से जो जीतकर आते हैं, मुसलमानों के प्रति उनकाअपना कोई नज़रिया नहीं होता, क्योंकि उन्हें तो अपनी पार्टी के मुताबिक़ही काम करना है। हालांकि सरकार ने मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक हालत जानने के लिए सच्चर समिति का गठनकिया। इससे पहले रंगनाथन मिश्र आयोग बनाया गया, लेकिन इनकीसिफ़ारिशों को अभी तक लागू नहीं किया गया। इसलिए मुसलमानों कोइनका कोई फ़ायदा नहीं मिला।  बहरहाल, मुसलमानों को अपनी क़ौम की तरक़्क़ी के लिए आगे आना होगा . इसके ज़रूरी है कि वे सियासत में ज़्यादा से ज़्यादा प्रतिनिधित्वहासिल करें।

(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)

 

 

 






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