शॉकर कितना मजबूत है आपके जीवन की गाड़ी का
Pushya Mitra
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पहले कल्पेश जी की खुदकुशी की सूचना मिली, फिर हजारीबाग में एक व्यवसायी परिवार के छह सदस्यों के एक साथ खुदकुशी की खबर आयी, पहले भी किसी आइएएस, किसी अधिकारी, किसी नेता की खुदकुशी की खबरें हम सुनते-जानते रहे हैं. भैय्यूजी महाराज जैसे आध्यात्मिक गुरु और कलिखो पुल जैसे बड़े राजनेता खुदकुशी कर रहे हैं. किसानों की खुदकुशी का तो कहना ही क्या, वह एक अलग ही मसला है. मगर इन लोगों की खुदकुशी समाज में एक अनकहा डर पैदा करती है, ये किसान नहीं हैं जो पैसों के अभाव में जान दे रहे हैं. ये हमारे समाज के उस वर्ग के लोग हैं जिन्हें मौजूदा मानकों के हिसाब से सफल माना जाता है. अब जैसे कल्पेश जी की ही बात कर लीजिये, अखबार में काम करने वाला सौ में से नब्बे पत्रकार यह जरूर सोचता होगा कि काश वह भी उस कुरसी पर होता. हजारीबाग का व्यापारी परिवार भी ठीक-ठाक समृद्ध था. भैय्यूजी महाराज की इस बाबा विरोधी काल में भी अपनी एक प्रतिष्ठा थी. फिर क्यों ये लोग जीवन से निराश हो रहे हैं.
यहां गरीबी नहीं है, मुश्किलात नहीं है, अभाव नहीं है, यहां सिर्फ भय और घबराहट है. इन लोगों ने अपने लिए जो चोटी गढ़ी है, उससे फिसल जाने का भय है. खबर आयी है कि ऐसा पहली दफा हुआ कि भास्कर के संपादकों की बैठक में उन्हें निमंत्रण नहीं मिला, संभवतः बीस साल के कार्यकाल में. लड़की की ब्लैकमेलिंग का मसला तो था ही, मगर वे उससे निबटने का रास्ता निकाल चुके थे. पुलिस को इत्तिला दे चुके थे कि उनके खिलाफ शिकायत की जा सकती है, मगर जब इस कठिन वक्त में संस्थान उनके साथ खड़ा नहीं हुआ, हाथ छुड़ाने की कोशिश करने लगा तो यह उनके लिए ऐसा झटका था जिसे वे झेल नहीं पाये. उसी तरह हजारीबाग के व्यापारी परिवार ने लिखा है कि बीमारी, कर्ज, व्यापार में घाटा, पैसा बाजार में डूबा इसलिए खुदकुशी कर बैठे. खबर में कहा जा रहा है कि बाजार में उनका पचास लाख रुपया फंसा हुआ था. भैय्यूजी महाराज की कहानी थोड़ी अलग है, वे अपने घर के विवाद को सुलझाने में असर्मथ थे. मगर अमूमन एक बात तय है कि लोग जिंदगी की गति से तो खूब मुकाबला कर ले रहे हैं, मगर झटके झेल नहीं पाते. जैसे बिहार का वह स्क्रिप्ट राइटर खुदकुशी कर बैठा कि उसे एक साल से काम नहीं मिल रहा था.
यह आज के वक्त की कहानी है, हम सबकी जिंदगी की गाड़ी में काफी मजबूत और हाइटेक इंजन लगा हुआ है. हम हमेशा अपनी गाड़ी का एक्सीलेरेटर फुल रखना चाहते हैं. हम सबके पास एक सपना है. कुछ लोगों के पास कई-कई सपने हैं. ये सपने अलग-अलग रंग के हैं. कोई अंबानी बनना चाहता है तो कोई अमित शाह. कोई सलमान खान बनना चाहता है तो कोई महेंद्र सिंह धौनी. कोई अनुराग कश्यप ही बन जाने की होड़ में है. तो कोई प्रेमचंद या रेणु की तरह साहित्य की दुनिया में शोहरत बटोरना चाहता है. सोशल मीडिया पर लाइक्स और शेयर की गिनतियां भी इसी महत्वाकांक्षा की उपज है. इसलिए एक-एक उपलब्धि को हम आठ-आठ बार शेयर और पोस्ट करते हैं. फेसबुक पर भी, वाट्सएप के ग्रुपों में भी, पर्सनल मैसेंजर पर भी, इंस्टाग्राम और लिंक्डइन में भी, और अगर तसल्ली नहीं हुई तो फोन करके भी पूछ लेते हैं कि आपने मेरा स्टेटस देखा क्या. एक बार शेयर कर दीजियेगा. यह उपलब्धि नहीं है. यह लालसा है. उपलब्धि होती तो आपके बदले दूसरे लोग इसकी चर्चा कर रहे होते. कल को अगर कोई फेसबुक लाइक्स में तेजी से गिरावट आने पर खुदकुशी कर ले तो मुझे हैरत नहीं होगी.
हम सब सफलता के लिए मरे जा रहे हैं, मगर झटके झेलने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं. हममें से कितने लोग ऐसे हैं, जिनकी अगर नौकरी चली जाये, व्यापार डूब जाये तो पांच हजार रुपये प्रति माह में घर चलाने के लिए मानसिक रूप से तैयार हैं? इसी धरती पर पांच हजार रुपये प्रति माह में जीने वाले करोड़ों लोग हैं. वे खुश भी रहते हैं. मगर हमारे लिए यह स्थिति जहर हो जाती है. हम अपने ही अंतर्विरोधों में घिर जाते हैं. आसपास के लोग जीना मुहाल कर देंते कि आपकी फलां गलती से ऐसा हुआ, फलां काम करते तो ऐसा नहीं होता. हम एक-एक प्रसंग में अफसोस करेंगे, बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ाना पड़ रहा है. घर में बिना एसी-बिना कूलर के रहना पड़ रहा है. आइसक्रीम खरीद कर खा नहीं सकते. इन्हीं अफसोसों में हम डूबे रहेंगे और बार-बार सोचते रहेंगे कि इस जीने का क्या मतलब है?
मगर क्या जीने का मतलब सिर्फ इतना है कि आपके पास अपना घर, अपनी कार, टीवी-फ्रिजी, वाशिंग मशीन, एसी, माइक्रोवेब हो. क्रेडिट कार्ड हो, बैंक बैलेंस इतना हो कि खर्च करते वक्त सोचना नहीं पड़े. क्या यही जीवन की सफलता है. या फिर मंचों पर आपका स्वागत हो, पुरस्कार मिले, तालियां बजती रहे, पीएम मोदी आपकी ट्वीट को रि-ट्वीट कर दें, आपके स्टेटस पर लाइक्स की बरसात होती रहे. क्या यह आपकी सफलता है? मैं भी इस मसले पर कंफ्यूज रहता अगर मेरी मुकालात पिछले दिनों नंदी जी से नहीं हुई होती जो जेपी के शिष्य, अपातकाल के सेनानी और छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ता हैं. जो बोधगया से चंपारण तक किसानों के लिए लड़ते रहे हैं. जिनके पास न बैंक बैलेंस है, न मंच, पुरस्कार और तारीफ. जिनका घर उनकी पत्नी के ब्यूटी पार्लर की कमाई से चलता है और जो बेफिक्र होकर समाज का काम करते हैं. उन्हें कुछ नहीं चाहिए.
भारत में ऐसे संतों की परंपरा रही है, जो कहते हैं, संतत को कहां सीकरी सो काम. जो कुछ नहीं चाहते इसलिए वे खुद को सबसे अमीर समझते रहे हैं. मगर हमारी चाहना कभी खत्म नहीं होती और हमारे पास कोई बैकअप प्लान नहीं है. हमने कभी सोचा नहीं कि जिंदगी की गाड़ी जब हिचकोले खाने लगेगी तो क्या हमारा शॉकर काम करेगा? हमने अपनी गाड़ी में इंजन को शानदार लगवा लिया, मगर शॉकर कैसा है उसकी जरा भी फिक्र नहीं की. अगली बार जब आप सर्विसिंग के लिए जाइये तो चेक करवाइये, शॉकर ठीक है न? क्योंकि जिंदगी का रास्ता सिर्फ एक्सप्रेस वे वाला नहीं होता और एक्सप्रेस वे में भी हादसे हो जाते हैं.
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