पुष्य मित्र
वे दोपहर दो बजे के करीब आये थे. हाथ में एक दर्जन पन्ने की प्रेस रिलीज थी. हालांकि मैं किसी बीट का रिपोर्टर नहीं हूं, मगर कई दफा लोग मुझे भी रिलीज देने पहुंच जाते हैं. चुकि यह मामला चंपारण से जुड़ा है, इसलिए भी उन्हें लगा कि इस मामले में मेरी रुचि होगी. उनकी धारणा थी कि मैं भी चंपारण का ही रहने वाला हूं.
मगर मेरी रुचि उनमें बढ़ने लगी. पॉलिस्टर का पुराना मुड़ा हुआ कुरता और पुरानी सी पैंट पहने और कांख में एक छोटा सा मैला-कुचैला बैग टांगे यह व्यक्ति चंपारण के भूमिहीनों और किसानों की लड़ाई लड़ रहे हैं. इनका नाम निर्मल चंद नंदी है. ये चंपारण भूमि अधिकार आंदोलन समूह के संयोजक हैं.
इन्होंने रिलीज मेरे हाथ में थमा कर कहा कि आपकी बहुत तारीफ सुनी थी पंकज जी से, आज मुलाकात हो गयी. अनायास ही मेरी नजर अपने कपड़ों, घड़ी और मोबाइल पर पड़ने लगी. मैं संकोच से गड़ा जा रहा था. एसी दफ्तर में बैठकर ज्ञान हांकने वाले एक औसत इंसान की लगभग मेरी जितनी उम्र से गरीबों की लड़ाई में झोंक चुका इंसान तारीफ कर रहा है. आखिर मैंने किया ही क्या है.
उन्होंने बताया कि वे जेपी आंदोलन में सक्रिय रहे थे. बाद में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुड़े और अपने दूसरे साथियों की तरह तय किया कि राजनीति से दूर रहकर समाज की लड़ाइयां लड़ेंगे. इस सिलसिले में दो-ढाई साल बोधगया मठ की जमींदारी के आंदोलन में भी जुटे रहे. जहां इन लोगों ने 14 हजार एकड़ से अधिक जमीन मठ के कब्जे से छुड़ाई और गरीबों में बंटवाया. उस आंदोलन में पहली बार बिहार में जमीन महिलाओं के नाम से बांटी गयी. फिर वे पंकज जी, चंपारण के सत्याग्रही के साथ आ जुटे. तब से चंपारण के जमीनी सवाल से जुड़े हैं.
इस दौर में जब जेपी का थैला ढ़ोने वाले मंत्री और मुख्यमंत्री बनते रहे हैं, जेपी का कोई सिपाही इस हाल में हो, यह मैं सोच नहीं पा रहा था. छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के भी कई सदस्यों से मिल चुका हूं, वे जमीनी लड़ाई लड़ते रहे हैं. मगर ज्यादातर लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक ठाक है. नंदी जी आज भी हर आंदोलन में झोला ढ़ोने वाले किसी सिपाही जैसे हैं. इन्हें जेपी पेंशन भी नहीं मिलता, क्योंकि वे मीसा एक्ट के तहत जेल नहीं गये थे, इमरजेंसी के दौरान सत्याग्रही के रूप में जेल गये थे.
कभी सोचा नहीं, अपने लिए परिवार के लिए. पूरी उम्र गुजार चुके हैं दूसरों की लड़ाई लड़ने में? जवाब में कहते हैं, यही अपनी कमाई है. बच्चों के लिए यही छोड़ जाऊंगा. पत्नी ब्यूटी पार्लर चलाती है, उसी के पैसे से घर चलता है. बच्चे बड़े हुए उसी की कमाई से. अब बच्चे भी कहीं न कहीं कमाने लगेंगे. पत्नी ने कह दिया कि तुम दुनिया को देखो, घर देखना मेरा काम है. बच्चों ने कह दिया कि आप लोगों का काम कीजिये, जो पुण्य आपके हिस्से आयेगा उसी से काम चलायेंगे.
आज के जमाने में ऐसा होता है क्या? कैसा घर है नंदी जी का. कहां से ऐसी पत्नी, ऐसे बच्चे मिले. और ऐसा स्वभाव कि कभी इस बात पर ध्यान नहीं जाता कि पॉलिस्टर के बदले खादी का ही कुरता होता. पैसे नहीं होते, मगर मंचों पर बुला कर सम्मानित किया जाता. समाज सेवा के अवार्ड मिलते, तारीफें होतीं. कोई मैग्सेस अवार्ड मिल जाता, पद्मश्री हो जाते. नहीं. कहते हैं, लोगों का काम हो जाये यही उनका अवार्ड है. जेपी ने जो शपथ दिलाई है उसे ताउम्र निभाना है. 64-65 साल के हो गये हैं. मगर रिटायर होने का भी इरादा नहीं हैं. जब तक जिंदा हैं, तब तक काम करना है. लोगों का. अपना नहीं. ऊपरवाला किस फैक्ट्री में ऐसे लोगों को बनाता है?
( पुष्य मित्र वरिष्ठ पत्रकार हैं, वे प्रभात खबर से जुडे हैं. यह आलेख उनके फेसबुक टाइमलाइन से साभार )
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