मैथिली को झा झा एक्सप्रेस कहिये …
Pushy Mitra
मैथिली को बोली कहिये तो सबलोग एक जुट होकर विरोध करते हैं, मगर जब मैथिली को झाझा एक्सप्रेस कहिये तो 90 फीसदी झाजी किंतु-परंतु करने लगते हैं। यह विद्यापति पर्व वाली पोस्ट का हासिल है। कई लोगों ने खुलेआम कहा कि जब सारी पत्रिकाएं ब्राह्मण ही निकालते हैं, ज्यादातर कवि-लेखक ब्राह्मण ही हैं तो क्यों न झाजी का आधिपत्य हो। एक व्यक्ति ने कहा कि पहले दूसरी जाति वाले को सिखाईये पढाईये, इस योग्य बनाईये, फिर बात कीजिये। एक व्यक्ति ने कहा कि दूसरी जाति के लोग खुद क्यों नहीं कार्यक्रम आयोजित करते हैं। मतलब यह कि हमारी सामाजिक संरचना पर और इसमें ब्राह्मणवाद के हावी रहने पर सवाल मत कीजिये।
हमें संविधान से मिला अधिकार चाहिये, सरकार से
सुविधाएं चाहिये, मगर हम अपने इलाके में बस रहे करोड़ों दलितों, मुसलमानों, पिछडों, यहां तक कि दूसरी सवर्ण जाति को भी शामिल नहीं करेंगे। दरअसल, यह सच है कि मैथिली और मिथिला के नाम पर लड़ने वाले ज्यादातर लोग और संगठन अंततः इस पर दरभंगा-मधुबनी के ब्राह्मणों का अधिकार चाहते हैं। वे इस सत्ता में कोई बंटवारा बरदास्त नहीं करते। यही वजह है कि मैथिली और मिथिला के आंदोलन को दुनिया सशंकित निगाह से देखती है। एक जवाब यह भी आया कि आज जो प्रवासी मैथिल ब्राह्मण इस आंदोलन से जुड़े हैं, वे इस विवाद को देखकर छिटकने लगेंगे। तो क्या मैथिली और मिथिला का आंदोलन सिर्फ इसी वर्ग की अस्मिता और नॉस्टेल्जिया का आंदोलन है?
नहीं, मिथिला का आंदोलन इस इलाके के लाखों लोगों के जमीनी सवालों का आंदोलन है। जिसमें ब्राह्मण एक छोटा सा समूह है, भले ही वह सैकड़ों सालों से यहां की सत्ता पर काबिज रहा है। मगर यह आंदोलन उसे फिर से सत्ता सुख दिलाने का आंदोलन नहीं होना चाहिये। यह दरभंगा राज के दिनों की वापसी का आंदोलन है तो माफ कीजिये, यह बहुत गलत है। यह नदियों के कछार में रहने वाली अति दरिद्र आबादी का आंदोलन है, जो हर साल बाढ़ झेलती है मगर उसे इस स्थिति से उबारने के लिये कुछ नहीं किया जाता। भाषा का आंदोलन इसलिये है कि मैथिली भाषा उसकी संस्कृति का प्रतीक है।
यह गर्वोक्ति बहुत घटिया और आधारहीन है कि इस संस्कृति को सिर्फ ब्राह्मणों ने सजाया संवारा है। विद्यापति को ही लीजिये। उनके गीतों को ब्राह्मणों ने नहीं, यहां की महिलाओं ने अपने कंठ में सजा कर सुरक्षित रखा। यहां की दलित आबादी ने नाच बनाया और उन गीतों को नए नए अर्थ दिए, जिसे बिदापत नाच कहते हैं। उनके गीतों को शास्त्रीय धुन में बांधने में एक घरेलू नौकर मांगन गवैया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये सब ब्राह्मण नहीं थे।
यहां पमरिया नाचने वाले और भगैत गाने वाले ब्राह्मण नहीं हैं। नदियों के गीत ब्राह्मणों ने नहीं रचे हैं। चार छंद जोड़ना क्या सीख लिया खुद को संस्कृति का पहरुआ मान बैठे। साहित्य अकादमी से लेकर, कालेजों, संस्थाओं में बैठ गए, पत्रिकाएं छापने लगे और खुद को सारा सर्टिफिकेट दे दिया। और दूसरों को खारिज करने लगे। पहले इस भ्रम से निकलिये कि आप ही मैथिली के सबकुछ हैं। आप सिर्फ उपभोक्ता हैं, मैथिली की मलाई पर काबिज हैं, इसकी संस्कृति के पहरुआ नहीं। इसलिये, गरजकर प्रतिरोध करना बंद कीजिये।
घर से बाहर निकलिये और देखिये कि दुनिया आपको क्या कहती है। जिस तरह अश्लीलता भोजपुरी की पहचान बन गयी है उसी तरह झाजी कल्चर मैथिली की। यह पहचान दोनों भाषाओं पर बोझ है। भोजपुरी में तो इसे उतारने की कोशिशें चल रही हैं, इसके नतीजे सामने आ रहे हैं। भोजपुरी की सबसे बड़ी खासियत है कि वह जातीय पहचान से मुक्त है। वह भिखारी ठाकुर को अपना नायक बनाने में हिचकती नहीं है। भले उसके पास महेंदर मिसिर जैसे लोग भी हों। यही वजह है कि भोजपुरी आंदोलन आज किसी एक जाति का आंदोलन नहीं, पूरे भोजपुरिया समाज का आंदोलन है।
मगर मैथिली अपने पुरातनपंथी सोच और प्रतिक्रियावादी नजरिये के बीच संतुष्ट है। विरोध करने वाले सहमे रहते हैं। एक बार बोलने पर हजारों तरह के कुतर्क सुनने पड़ते हैं। यह जो सोच का ब्लॉकेज है यह सबसे बड़ी बाधा है। इससे नहीं निकले तो यह आंदोलन बस एलिटिज्म बनकर रहने वाला है। आपके गांव के मल्लाहों, दुसाधों, धनिकों, यादवों, मुसलमानों को आपके आंदोलन से कोई मतलब नहीं। और आपको भी कोई फर्क नहीं पड़ता। हम ब्राह्मण ही काफी हैं, हमें तो बस दरभंगा राज वाला दौर वापस चाहिये।
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