ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाही
ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाही
पंडित अनूप चौबे
कंस वध के बाद मथुरा में पहली बार रंगोत्सव का त्योहार मनाया जा रहा है। चारो ओर गीत, ढप, झांझर, और उल्लास का शोर है। निर्द्वन्द्व और अभय के वातावरण में पौधे प्राणी मानव आज खुलकर उत्सव मना रहे पर कृष्ण यमुना के इस पार खड़े होकर उस पार निरंतर निहारे ही जा रहे हैं।
‘उस पार क्या देख रहे हो मित्र? होली नही खेलोगे?’ उद्धव ने कन्हैया कर कंधे पर हाथ रखा।
‘किंचित अब नही मित्र। मेरी होली तो मेरी बांसुरी की तरह बरसाने में ही छूट गयी है।’ कृष्ण ने उद्धव की ओर देखा।
‘अब तुम यहाँ के राजा हो तुम्हे होली खेलने से यहाँ कौन रोक सकता है। यदि चाहो तो बरसाने में भी जाकर खेल सकते हो।’ उद्धव बोले।
‘मथुरा आने के बाद यमुना ने भी अपना जल बदल लिया है। मथुरा नगरी मेरी पूजा कर सकती है , मेरी आज्ञा पर हाथ बांधे खड़ी रह सकती है पर मथुरा में मेरी शरारतों के लिए कोई जगह नही है। यह रंगोत्सव राजाओं के लिए नही है उद्धव, इस उत्सव के लिए आपको बालक होना पड़ता है। मेरे बालपन को सहने और उस पर स्नेह लुटाने का सामर्थ्य मथुरा में नही है।’ कृष्ण बोलते जा रहे थे, यमुना का खारापन बढ़ता जा रहा था।
‘पर अपनी मुस्कुराहट से सब का मन मोहने वाले को इस तरह की उदासी शोभा नही देती केशव।’ उद्धव ने टोका।
क्या शोभनीय है और क्या अशोभनीय इसका विचार जहाँ नही होता उसी जगह का नाम गोकुल है और यही भेद है मेरे ब्रज मथुरा में। कृष्ण मुस्कुराए, फिर बोले, ‘ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाही।’
हम सबका अपना एक ब्रज है जिसे छोड़ कर कोई किसी मथुरा में है कोई द्वारका में है कोई कहीं है पर होली आते ही वह ब्रज पुकारता है, बुलाता है पर ब्रज एक बार छूटने के बाद कहाँ मिलता है। न मिलते हैं नन्द बाबा न यशोदा मैया। न मिलती है राधा न श्याम सखा। न मिलता है माखन मिश्री न मिलती है यमुना धेनु और न ही कदम्ब की छाँह।
होली आती है, हृदय में एक हूक उठती है आंखें अपने अपने ब्रज को निहारती हैं, यमुना का जल फिर फिर खारा होता है।
जय श्री राधे कृष्णा
#साभार
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