पार्टियों का लोकतंत्र
पार्टियों का लोकतंत्र
पुष्यमित्र
अपनी पार्टी में चल रहे उठा-पटक के बीच महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे ने अपना मुख्यमंत्री आवास खाली कर दिया है और कहा है कि उनकी पार्टी अगर किसी और नेता को सीएम के लायक मानती है तो लोग आकर कह दें, वे तत्काल पद छोड़ देंगे. उन्होंने कहा है कि उनकी जगह कोई शिव सैनिक सीएम बनेगा तो उन्हें बहुत खुशी होगी.
भीषण राजनीतिक संकट में घिरे उद्धव के इस कदम को कई लोग उनका मास्टर स्ट्रोक बता रहे हैं, मगर मेरे लिए यह उनका बहुत सहज औऱ स्वाभाविक कदम है. अगर विधायक उनको अपना नेता नहीं मान रहे तो लोकतंत्र का तकाजा है कि उन्हें पद छोड़ना पड़ेगा. अगर पार्टी के भीतर उनके नेतृत्व को लेकर संशय या विरोध है तो उसे लोकतांत्रिक तरीके से डील किया ही जाना चाहिए.
शिवसेना के बागी विधायक कल गुजरात में थे, और वहां से फिर से पूर्वोत्तर राज्य असम की राजधानी गुआहाटी पहुंच गये हैं. बागी नेता उन विधायकों को लेकर भटक रहे हैं. यह सब लोकतंत्र में अब अक्सर होता है. विधायकों को नेता तिजोरी में रखते हैं कि कोई उन्हें चुरा न ले. फिर बारगेनिंग होती है.
मगर यह सब लोकतंत्र के लिहाज से असहज करने वाला दृश्य है. उचित यही था कि विरोध के स्वर उठते ही पार्टी अध्यक्ष को बैठक बुलाना चाहिए था. वहां सबके सामने बात होनी चाहिए थी, विरोध के मसलों को समझा जाना चाहिए था. अगर सर्वसम्मति से कुछ तय हो जाता तो ठीक नहीं तो वहीं वोटिंग कराकर विधायक दल का नेता बदल लेना चाहिए था. जो लोकतांत्रिक देश के भीतर पार्टी के लोकतंत्र का स्वाभाविक रूप होता.
मगर दुर्भाग्यवश इस मुल्क में अब सिर्फ कहने को लोकतंत्र है. सत्ता हासिल करने की तमाम साजिशें मध्यकालीन राजतांत्रिक व्यवस्थाओं जैसी ही लगती हैं. इसकी एकमात्र वजह है पार्टियों के भीतर लोकतंत्र गायब हो गया है. अक्सर एक व्यक्ति का कद इतना बड़ा हो जाता है कि पार्टी उसके आगे बौनी लगने लगती है और पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र उसके आगे घुटने टेक देता है. इसके बाद पार्टी धीरे-धीरे उसकी व्यक्तिगत या पारिवारिक संपत्ति बन जाती है. इस परंपरा ने इस देश की पार्टियों का बड़ा नुकसान पहुंचाया है और आखिरकार इन सबका असर लोकतंत्र पर पड़ता है.
इस वक्त देश की राजनीति में सबसे बड़ी बहस धर्म और धर्मनिरपेक्षता के बीच है. इसी आधार पर लोग राजनीतिक तौर पर भी बंट गये हैं. मगर इस बंटवारे ने बाकी तमाम राजनीतिक विरोधाभासों को सहज स्वीकार्य बना दिया है. मगर यह ठीक नहीं है.
धर्म के आधार पर सत्ता चलाना, तानाशाही रवैया अपनाना और पूंजीपतियों के आगे सत्ता का घुटने टेक देना निश्चित तौर पर इस वक्त सत्ताधारी राजनीति का बड़ा दोष है. मगर इस वजह से हम विपक्ष की इन कमियों को नजरअंदाज कर दें यह ठीक नहीं. पार्टी के भीतर का लोकतंत्र अब सत्ताधारी भाजपा के भीतर भी लगभग खत्म हो चुका है. कांग्रेस जिस आलाकमान संस्कृति के लिए बदनाम थी, अब भाजपा में भी वही संस्कृति हावी है. इसलिए सवाल सत्ता या विपक्ष का नहीं है.
सवाल राजनीतिक दलों के भीतर लगातार खत्म होती लोकतांत्रिक पद्धतियों का है. पार्टियों में अब असहमतियों को कोई स्पेस नहीं है. वहां किसी फैसले को लेकर बहस नहीं है. नेतृत्व परिवर्तन को लेकर कोई सहज प्रक्रिया नहीं है. यह व्यवस्था आपने तय नहीं कि किसी एक व्यक्ति या परिवार का पार्टी पर कब्जा न हो जाये. पार्टी एक सार्वजनिक मंच बना रहे. अगर आप यह नहीं कर पा रहे. अपनी पार्टी के बीच सहज लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं बना पा रहे. तो देश की राजनीति में लोकतंत्र को लंबे समय तक जिंदा रखना मुश्किल होगा.
उद्धव की तारीफ इस बात के लिए जरूर की जानी चाहिए कि कूटनीति के तौर पर ही सही मगर उसने लोकतांत्रिक पद्धति की शर्तों का उल्लेख किया. वे सक्षम हैं इसे आगे बढ़ायें और देश की दूसरी पार्टियां भी इसे आगे बढायें. आदर्शवादी ही सही मगर इस विचार को जिंदा रखना जरूरी है.
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