पिछड़े युवाओं के लिए प्रशिक्षण अभियान था छात्र आंदोलन
पिछड़े युवाओं के लिए प्रशिक्षण अभियान था छात्र आंदोलन
पोलिटिकल कथा यात्रा -2
— वीरेंद्र यादव, वरिष्ठ संसदीय पत्रकार, पटना —
बिहार की राजनीति में 1967, 1977 और 1989 का लोकसभा चुनाव मील का पत्थर साबित हुआ है। इन तीनों चुनाव की जड़ में था पिछड़ी जातियों में राजनीतिक चेतना का विकास और सत्ता लालसा। समाजवादी आंदोलन के कारण पिछड़ी जातियों में सत्ता लालसा और संघर्ष बढ़ता जा रहा था। बिहार में नक्सल आंदोलन का विस्तार भी इसी दौर में शुरू हुआ था। नक्सल और समाजवादी आंदोलन के कारण सामाजिक सत्ता में व्यापक बदलाव आने लगा था और इसका असर राजनीतिक सत्ता पर भी दिखने लगा था। 1974 के छात्र आंदोलन में पिछड़ी जाति के युवा और छात्रों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी थी और इसी दौर के छात्र नेता 1990 के बाद बिहार की राजनीति के भाग्यविधाता हो गये। 30 साल बाद भी राजनीति में नयी पौध नहीं दिखी रही है, जिससे भविष्य में उम्मीद हो। जो दिख रहा है, वह वंशबेल है, स्वाभाविक लीडरशिप नहीं।
1974 के छात्र आंदोलन के दौरान इंटर के छात्र रहे और करीब एक दशक तक सीपीआइएमएल के कैडर रहे महेंद्र सुमन कहते हैं कि छात्र आंदोलन पिछड़ी जाति के युवा और छात्रों के लिए राजनीतिक प्रशिक्षण अवधि थी। इस दौरान बड़ी संख्या में पिछड़ी जाति के छात्र नेता आंदोलन में सक्रिय थे। इसकी वजह थी कि इस आंदोलन का नेतृत्व किसी राजपूत या भूमिहार के हाथ में नहीं था। कायस्थ जयप्रकाश नारायण के साथ पिछड़ी जाति के छात्र नेताओं ने सहजता महसूस किया। इसी कारण जेपी के आह्वान पर बड़ी संख्या में पिछड़े छात्र नेता आंदोलन में कूद पड़े। हालांकि इसमें सवर्ण छात्रों की संख्या भी काफी थी।
महेंद्र सुमन का मानना है कि समाजवादी और नक्सली आंदोलन ने पिछड़ी व दलित जातियों में राजनीतिक चेतना पैदा की थी। सत्ता में उनकी हिस्सेदारी बढ़ने लगी थी। शिक्षा का प्रसार भी बढ़ रहा था। 1970 के बाद विश्वविद्यालयों में सवर्ण छात्रों को पिछड़ी जातियों से चुनौती मिलने लगी थी। इसी दौर में पटना विश्वविद्यालय में लालू यादव, सुशील मोदी जैसे नेताओं ने अपने लिए जगह बनायी और छात्र संघ चुनाव में शीर्ष पदों पर पहुंचे। इसी दौर में रविशंकर प्रसाद जैसे कायस्थ भी पिछड़ों के सहयोग से अपने लिए जगह बनाने में सफल रहे थे।
1977 के लोकसभा चुनाव और विधान सभा चुनाव का परिणाम पिछड़ी जाति के राजनीतिक उभार का गवाह था। 1978 के पंचायत चुनाव में बिना आरक्षण के ही पिछड़ी जाति के लोग बड़ी संख्या में निर्वाचित हुए। इसने ग्रामीण स्तर पर सामाजिक सत्ता को बदलकर रख दिया। इसके बाद बिहार का सामाजिक और राजनीतिक चरित्र बदला। 1989 आते-आते ज्यादा मुखर हो गया। 1989 के चुनाव में मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने की मांग मुद्दा था, लेकिन मंडल आंदोलन जैसा कोई मुद्दा नहीं था। इसके बावजूद 1990 में जनता दल को सरकार बनाने का मौका मिला तो उसने लालू यादव जैसे एक पिछड़ा व्यक्ति को ही अपना नेता चुना। विधायक दल के नेता लालू यादव चुने गये।
दरअसल, समाजवादी और नक्सली आंदोलन का सबसे अधिक सामाजिक और राजनीतिक लाभ पिछड़ी जातियों को ही मिला। समाज का यही मध्यम वर्ग था। आजादी के बाद शिक्षा का प्रसार और पैसों का प्रवाह इन जातियों में तेजी से हो रहा था। राजनीतिक रूप से सचेत हो रही इन जातियों को ही डॉ लोहिया ने अपने प्रयोग की जमीन बनाया। पिछड़ा पावे सौ में साठ का नारा भी इन जातियों को आकर्षित कर रहा था। सामाजिक उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ नक्सली आंदोलन को ताकत भी इन्हीं जातियों से मिल रही थी। 1974 का छात्र आंदोलन पिछड़ी जातियों की राजनीतिक और सामाजिक चेतना को विश्वविद्यालयों के कैंपसों में सक्रिय किया। छात्र आंदोलन ने इन छात्रों को अपनी भूमिका निभाने और तय करने का मौका दिया। नेतृत्व के साथ समन्वय और सक्रियता का प्रशिक्षण भी दिया। इसका दूरगामी असर अब तक दिख रहा है।
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