जननायक का जन्मदिन
जननायक का जन्मदिन
प्रेमकुमार मणि
बिहार में 24 जनवरी की तारीख राजनीतिक गलियारों में खूब चहल -पहल वाली होती है . यह दिन बिहार के समाजवादी नेता दिवंगत कर्पूरी ठाकुर ( 1924 – 1988 ) का जन्मदिन है . वह समाजवादी पार्टी और विचारों के नेता थे, और जब थे ,तब वर्चस्वप्राप्त सामंती सामाजिक समूहों के आँखों की किरकिरी बने होते थे . किन्तु कुछ तो है कि उनका जन्मदिन एकाध छोड़ लगभग सभी दलों के नेता किसी न किसी रूप में मनाते हैं . भारतीय जनता पार्टी तक के लोग भी ,जिनका सामान्यतया उनसे आजीवन विरोध रहा . 1979 में उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए जनता पार्टी के जनसंघी धड़े (भाजपा का पूर्व रूप ) और कांग्रेस में एकता हो गई थी . लेकिन आज इन दोनों पार्टियों के नेता भी उनका वंदन -अभिनंदन करते हैं .
कर्पूरी ठाकुर अनेक मामलों में अजूबे थे . उनका जन्म सामाजिक रूप से एक अत्यंत पिछड़े परिवार में हुआ था . पिता गोकुल ठाकुर पारम्परिक जाति- व्यवस्था में नाई थे ,जिनका पेशा हजामत बनाना और बड़े लोगों की सेवा करना होता था . ऐसे ही परिवार में 1924 में उनका जन्म हुआ . वह जमाना राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का था . समाज करवट ले रहा था . शायद करवट का ही असर था कि उन्हें स्कूल जाना नसीब हुआ था . कहते हैं जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की ,तब उनके पिता उन्हें साथ ले कर गाँव के एक सामंत के घर गए . बेटे की सफलता से उल्लसित पिता ने बतलाया कि बेटा मैट्रिक पास कर गया है और आगे पढ़ना चाहता है . सामंत अपने दालान पर लकड़ी के कुंदे की तरह लेटा हुआ था . हिला और किशोर कर्पूरी को एक नजर देखा . बोला – ‘ अच्छा तूने मैट्रिक पास किया है ? आओ मेरे पैर दबाओ . ‘ यह बिहार का सामंतवादी समाज था ,जो जातिवाद के दलदल में भी बुरी तरह धंसा था . हजार तरह की रूढ़ियाँ और उतने ही तरह के पाखंड . शोषण का अंतहीन सिलसिला .
ऐसे ही समाज में कर्पूरी ठाकुर ने आँखें खोली . वह उस बिहार से थे ,जहाँ 1930 के दशक में जयप्रकाश नारायण की पहल पर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनी थी , जहाँ स्वामी सहजानंद ने किसान आंदोलन को खड़ा किया था . कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो गया था . त्रिवेणी सभा के नेतृत्व में सामाजिक परिवर्तन की नई मुहिम शुरू हुई थी . कर्पूरी ठाकुर चुपचाप समाजवादी आंदोलन और पार्टी से जुड़े और जल्दी ही उनके बीच अपनी पहचान बना ली . 1952 में जब पहला आमचुनाव हुआ ,तब वह समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ कर बिहार विधानसभा में पहुंचे . उसके बाद वह लगातार धारासभाओं में बने रहे . बिहार के एक बार उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने . जब सरकार से बाहर रहे तब प्रतिपक्ष के पर्याय बने रहे .
लेकिन क्या यही उनकी विशेषता है ,जिनके लिए आज उनकी चर्चा होती है ? शायद नहीं . सच्चाई यह है कि वह सरकार में बहुत कम समय के लिए रहे . पहली दफा 22 दिसम्बर 1970 से 30 जून 1971 तक और दूसरी दफा 24 जून 1977 से 30 जून 1979 तक . दोनों बार मिला कर उनका कार्यकाल ढाई साल का होता है . इसके अलावे 1977 में दस महीनों के लिए उपमुख्यमंत्री भी रहे . यही उनके हुकूमत की अवधि थी . इस अल्पकाल में ही बिहार के सामाजिक -राजनीतिक जीवन को उन्होंने जिस तरह प्रभावित किया उसकी चर्चा आज तक होती है.
बिहार में केवल एक बार शिक्षा का लोकतंत्रीकरण हुआ और वह कर्पूरी ठाकुर ने किया . पढाई में अंग्रेजी की अनिवार्यता को ख़त्म कर के उसे किसान मजदूरों के बच्चों के लिए सुगम बना दिया ,जो अंग्रेजी के कारण अटक जाते थे और जिनकी पढाई बाधित हो जाती थी . जिंदगी भर नॉन मैट्रिक बने रहने की पीड़ा वह झेलते रहते थे . अंग्रेजी के बिना भी बहुत अंशों तक पढाई की जा सकती है . इसे उन्होंने ने रेखांकित किया . दलित -पिछड़े तबकों और स्त्रियों में इससे शिक्षा में आकर्षण बढ़ा . उनका दूसरा काम स्कूलों में टूशन फीस को समाप्त करना था . इससे स्कूलों में बच्चों का ड्रॉपआउट कमजोर हुआ . शिक्षा सुधार का यह एक क्रांतिकारी कदम था . 1977 में उन्होंने मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार कर सरकारी नौकरियों में पिछड़े तबकों के लिए छब्बीस फीसद आरक्षण सुनिश्चित किया . कार्यपालिका के जनतंत्रीकरण का उत्तर भारत में यह पहला प्रयास था . इसके साथ सभी स्तरों पर भूमिसुधार कानूनों को लागू कर बिहारी समाज के सामंतवादी ढाँचे की चूलें हिला दी . इन सब के लिए बिहार के सामंतों ने कर्पूरी ठाकुर को कभी मुआफ नहीं किया . सामंती ताकतों से तिरस्कार और विरोध का जो तेवर कर्पूरी ठाकुर को झेलना पड़ा वैसा किसी कम्युनिस्ट नेता को भी नसीब नहीं हुआ . 1980 के आरम्भ में मध्य बिहार के ग्रामीण इलाके जब नक्सलवाद से प्रभावित हुए तब सामंतों ने बिक्रम में एक सशस्त्र जुलूस निकाला; जिसमें मुख्य नारा था – ‘ नक्सलवाद कहाँ से आई , कर्पूरी की माई बिआई .’ सामंतों का आकलन बहुत हद तक सही था . गरीबों को उठ कर अपनी आवाज बुलंद करने का साहस कर्पूरी ठाकुर ने ही दिया था . वही उनके टारगेट थे .
बावजूद इन सब के उन्होंने कभी किसी से बैर भाव नहीं पाला . वह जो कर रहे हे ,न्याय के लिए कर रहे थे ,नफरत फ़ैलाने के लिए नहीं . एकबार उनके मुख्यमंत्री रहते सामंतों ने उनके पिता की पिटाई की . कलक्टर ने पिटाई करने वालों के खिलाफ कड़ा रुख लिया . कर्पूरी ठाकुर ने कलक्टर को उन्हें यह कहते हुए छोड़ देने के लिए कहा कि मेरे पिता की तरह बहुत से गरीबों की रोज पिटाई हो रही है . जब सब की पिटाई बंद हो जाएगी मेरे पिता की भी पिटाई नहीं होगी . समस्या के व्यक्तिगत नहीं सामाजिक निदान में उनका विश्वास था . इसलिए कि वह सच्चे समाजवादी थे . उनके मुख्यमंत्री रहते पुलिस थाने में एक सफाई मजदूर ठकैता डोम की पिटाई से मौत हो गई . कर्पूरी ठाकुर ने खुद पूरे मामले की तहकीकात की . ठकैता डोम को उन्होंने अपना बेटा कहा . उसे स्वयं मुखाग्नि दी . ऐसा ही उन्होंने भोजपुर के पियनिया में किया जब एक गरीब की दो बेटियों रामवती और कुमुद के साथ बड़े लोगों ने बलात्कार किया . ऐसे मामलों में कभी-कभार पुलिस बाद में जाती थी , कर्पूरी जी पहले जाते थे . गरीबों से उन्होंने खुद को आत्मसात कर लिया था . सादगी और ईमानदारी का जो आदर्श उन्होंने रखा ,वह किंवदंती बन चुकी है .
जिस मात्रा में उन्हें बड़े लोगों का तिरस्कार मिला ,उसी मात्रा में उन्हें दलित -पिछड़े समाज का प्यार भी मिला . गरीब -गुरबे अच्छी तरह समझते थे कि कर्पूरीठाकुर को इतनी जिल्लत आखिर किसके लिए झेलनी पड़ रही हैं . उनका अपने लिए कोई स्वार्थ नहीं था . पूरे जीवन विधायक -सांसद, मुख्यमंत्री जैसे पदों पर बने रह कर भी उन्होंने कहीं अपना ठिकाना नहीं बनाया . तमिलनाडु के नेता कामराज जब मरे थे ,तब उनके संदूक से दो जोड़ी कपडे और सौ रूपए मिले थे . लगभग यही स्थिति कर्पूरी जी की थी . जैसे आए थे ,वैसे ही गए . यही कारण है कि जैसे -जैसे समय बीत रहा है और लोग तरह -तरह के राजनेताओं को देख रहे हैं ,कर्पूरी ठाकुर एक बड़े हीरो की तरह उभर रहे हैं . वंचित तबकों को राजनीतिक धारा से जोड़ने के लिए उन्होंने अपना जीवन न्योछावर कर दिया . इसी तबके ने उन्हें जननायक कहा . वह सच्चे मायने में जननायक थे .”
Premkumar Mani के फ़ेसबुक वॉल से साभार..
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