1000 रुपये किलो ठेकुआ, ये तो हद ही है
1000 रुपये किलो ठेकुआ, ये तो हद ही है :
Vineet Kumar
एथनिक फूड,गोन फूड, नॉस्टैल्जिया, लोकल, देसी..के नाम पर धीरे-धीरे एक ऐसा बाजार खड़ा हो गया है कि मामूली/सामान्य या बहुत कम लागत की चीज़ें भी लोगों की पहुंच से बाहर हो गयी हैं.
मुझे मिठाई कुछ ख़ास पसंद नहीं है इसलिए न तो ज़्यादा कुछ खरीदता हूं और न ही क़ीमत पता करता हूं. काजू कतली, डोडा बर्फी और मैसूर पाक.. ख़रीदकर मिठाई खाने का मन हो तो बस यही. मैं इन तीनों की लागत, मेहनत और बनाने की विधि जानता हूं. उसके आगे ठेकुआ बनाने में कुछ ख़ास मेहनत नहीं है. लेकिन
इतनी मंहगी ये तीनों मिठाई नहीं होती, देश की किसी भी दूकान या ब्रांड से ले लो. इमोशन में एक हजार रूपये किलो में ठेकुआ लोग भले ही खरीद लेते हों लेकिन इससे जिन चीज़ों का प्रचलन बढ़ना चाहिए, उल्टे और कम जाती है. कोई ब्रांड घरेलू, स्थानीय चीजें उपलब्ध करा रहा है, इसका मतलब ये थोड़े ही है कि अनाप-शनाप क़ीमत रख दे. ये तो हद ही है, 1000 रूपये किलो ठेकुआ.
ठेकुआ तो एकदम से भदेस, छात्र,मजदूर,कामगार के बीच की चीज़ है. घर में सबसे कम लागत में बननेवाली चीज़. एक हजार रूपये किलो बेचकर जबरदस्ती क्लास थोड़े ही बदल देंगे ! मेरे लिए तो कम से कम ये अफ़सोस की बात है.
Vineet Kumar के फेसबुक timline से
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