मुक्ति के दरवाजे चकला-बेलन छूटने से खुलते हैं

विनीत कुमार के फेसबुक timeline से साभार

ये तस्वीर उनके लिए जिन्हें बचपन से सिखाया जाता रहा- ये चूल्हा-चौका तुम लड़कों का काम नहीं है. जिस रसोई में गलने, तपने, पकने, कूटे और पीसे जाने का काम हुआ करता है, अधिकांश भारतीय पुरूष की परवरिश उससे काटकर की जाती है.
ये तस्वीर उनके लिए जिनके हिसाब से मुक्ति के सारे दरवाजे हाथ से चकला-बेलन छूटने से ही खुलते हैं. आधुनिक और आत्मनिर्भर होने के नाम पर जिस भोथरी समझ के साथ जो जीते हैं, ये तस्वीर उन्हें दोबारा से अपनी ऐसी समझ पर विचार करने की अपील करती जान पड़ती है. 

हमारे भीतर कई तरह की कुंठाएं पनपती रहती हैं. ये कुंठाएं मक़ाम हासिल कर लेने पर भी हमारा पीछा करती है और कई बार एकदम से बौना बना देती है. इनमें से एक कुंठा छोटा काम-बड़ा काम के विभाजन के बीच से उपजती है. ऐसी तस्वीर कुंठा की दीवार ध्वस्त करने के काम आती है. किसान आंदोलन के बीच से ऐसी सैंकड़ों तस्वीरें/विजुअल्स निकलकर आ रहे हैं जिनसे गुज़रते हुए हम अपने
रोज़मर्रा जीवन के नकलीपन को चिन्हित कर सकते हैं. बाक़ी सहमति-असहमति, समर्थन- विरोध के लिए सबसे पास अपनी-अपनी घुट्टी और विवेक है ही.

तस्वीर साभार : Prabodh Sinha






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