फादर्स डे : कितने बदल गए पिता !
ध्रुव गुप्त
रिश्तों की दुनिया में पिता मनुष्यता के आरम्भ से अभी कुछ सदियों पूर्व तक एक रहस्य ही रहा था। विकास के लाखों सालों में यह रिश्ता परिवर्तनों के कई-कई दौर से गुजरा है। मां के ममत्व की घनी छांह तो हर युग में लगभग एक-सी ही रही है, लेकिन पिता का अपनी संतानों के साथ जुड़ाव और व्यवहार सामाजिक परिवर्तनों और परिस्थितियों के साथ लगातार बदलता रहा है। इसे रिश्ते को समझने के लिए हमें स्त्री-पुरुष के संबंध के इतिहास में जाना होगा। सृष्टि के लाखों साल बाद तक यह संबंध अराजक रहा था। स्त्री और पुरुष का मिलना राह चलते घटने वाली एक आकस्मिक घटना थी। यह मिलन उनकी भावनाओं से नहीं, सेक्स की ज़रूरतों से संचालित था। इस मिलन के साथ जिम्मेदारी की कोई अवधारणा तब नहीं थी। विवाह की संस्था बहुत बाद में आई। स्त्री और पुरुष के संपर्क से उत्पन्न संतान के पालन-पोषण और उसे जीविका के लिए आत्मनिर्भर बनाने की जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ मां की होती थी। संतान के पिता का आमतौर पर पता नहीं होता था। अगर पता हो भी तो पुरुषों का दिल अपनी संतानों के लिए शायद ही धड़कता रहा होगा। विकास की उस आरंभिक अवस्था में जीवन की बेहद कठिन, निर्मम परिस्थितियों के कारण स्त्री और पुरुष अथवा पुरुष और उसकी ज्ञात-अज्ञात संतानों के बीच किसी किस्म की भावुकता और संवेदनशीलता तब कल्पना से परे की बात थी।
स्त्री-पुरुष संबंधों की दूसरी अवस्था वह थी जिसे हमारे शास्त्रों में कहीं-कहीं प्रजापति व्यवस्था कहा गया है। तब प्रजापति कहे जाने वाले कबीले के राजा, सरदार अथवा समर्थ लोग अपने अथवा अपने से कमजोर किसी कबीले की सुन्दर या अपनी पसंद की स्त्रियों को लूटकर अपने-अपने घरों में डाल लेते थे। जो जितना ताकतवर, उसका जनानखाना उतना बड़ा। घर में सेक्स गुलामों की तरह रखी गई स्त्रियों की संख्या से बहुत हद तक राजा या सरदार की सामाजिक हैसियत तय होती थी। विवाह की अवधारणा तब भी विकसित नहीं हुई थी। कबीले के अपेक्षाकृत कमजोर या दब्बू किस्म के पुरुषों के हिस्से में स्त्रियां नहीं आती थी। उनके लिए अपनी दमित कामेच्छाओं के साथ संसार से संन्यास लेकर तपस्या के लिए जंगलों में चले जाने के सिवा कोई रास्ता नहीं होता था। उस युग में सन्यासियों और वीतरागियों की बड़ी खेप पैदा होने की यह शायद सबसे बड़ी वजह थी। प्रजापति व्यवस्था में संतानों की मां का भी पता होता था और पिता का भी। यह और बात है कि हजारों सालों तक चले उस दौर में भी बच्चों से मतलब केवल मां को होता था। निरंतर चलने वाले सत्ता-संघर्ष, युद्धों और शिकार की कठिन परिस्थितियों में पिता के पास उनके लिए समय तब भी नहीं होता था। बच्चों की परवरिश के लिए जो संसाधन चाहिए थे, पिता उन्हें उपलब्ध अवश्य करा देता था। प्रजापतियों के इस दौर में पिता और संतानों के बीच दुनियादारी और जिम्मेदारी का एक रिश्ता जरूर बना, लेकिन उनके बीच एक मानसिक फासला भी हमेशा क़ायम रहा। भावनाओं और परस्पर संवाद-विवाद की जगह इस रिश्ते में नहीं थी। इस व्यवस्था में बच्चे आमतौर पर पिता के नाम से नहीं, अपनी माताओं के नाम से जाने जाते थे।
पिता और संतानों के रिश्तों का तीसरा दौर कृषि की खोज और पशुपालन के आरंभ के बाद शुरू हुआ। कृषि और पशुपालन को व्यवस्थित तरीके से संपन्न करने के लिए संबंधों की अराजकता से निकलकर एक स्थायी परिवार की स्थापना की आवश्यकता महसूस हुई। यही आवश्यकता विवाह नाम की युगांतरकारी संस्था की जनक बनी। पति-पत्नी के रिश्ते को स्थायित्व देने के लिए उसके इर्दगिर्द असंख्य धार्मिक मिथक गढ़े गए। पति-पत्नी और उनकी संतान से शुरू इस व्यवस्था ने धीरे-धीरे संयुक्त परिवार का रूप लिया। ऐसे परिवारों के सारे सदस्य कृषि के लिए नई-नई जमीन खोजने, उन्हें बीजारोपण के लिए तैयार करने, अनाज उगाने और कृषि, दूध या मांस के लिए पशुओं को पालने में एक दूसरे का सहयोग भी करते थे और एक दूसरे की चिंता भी। यही दौर था जब सही मायने में पारिवारिक रिश्तों की बुनियाद पड़ी और समाज में आपसी सहयोग और सामंजस्य के लिए जीवन मूल्य गढ़े जाने लगे। ऐसे संयुक्त परिवारों में भी बच्चों की जिम्मेदारी मुख्यतः मां और घर की बड़ी-बूढी औरतों की ही थी, लेकिन बच्चों के साथ पिता के एक कामचलाऊ रिश्ते की शुरुआत हो चुकी थी। उसे अपनी संतानों की परवरिश, स्वास्थ, मनोरंजन, शिक्षा और शादी-ब्याह की चिंता होने लगी। यह बड़ा बदलाव था। इससे बच्चों को विकास की थोड़ी बेहतर परिस्थितियां मिलीं। संयुक्त परिवारों की इस व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी यह थी कि बच्चों का जीवन उनकी अपनी इच्छा या सोच से नहीं, पिता और घर के बुजुर्गों की इच्छा और सोच से संचालित होता था। पारिवारिक और सामाजिक परंपराओं और रूढ़ियों से अलग और आगे जाने के विकल्प संतानों के पास नहीं के बराबर थे। उनकी व्यक्तिगत इच्छाओं, सपनों तथा स्वातंत्र्य चेतना के साथ किसी तरह का सामंजस्य न परिवार बिठा पाया और न पिता। आमतौर पर ऐसे परिवारों में पिता बदलते समय और जीवन मूल्यों के साथ चलना स्वीकार नहीं करते। वे भूल जाते हैं कि उनकी संतानों के जीवन की परिस्थितियां, उनकी मुश्किलें और उनके संघर्ष उनकी अपनी पीढ़ी से अलग हैं। अपने दौर के अप्रासंगिक हो चुके जीवन मूल्यों को अपनी संतानों पर थोपने के प्रयास में पिता का अपनी संतानों के साथ कोई गहरा, आत्मीय रिश्ता इस व्यवस्था में भी नहीं बन सका। अपनी तमाम सदिच्छाओं के बावजूद संतानों के लिए वह एक असहज उपस्थिति ही बना रहा – घर के अंदर भी और घर के बाहर भी। कृषि पर आधारित बड़े परिवारों की यह व्यवस्था अभी पिछली सदी तक निर्विवाद जारी रही थी। गांवों में इसके अवशेष अब भी देखे जा सकते हैं, लेकिन शहरों से यह व्यवस्था अब लगभग लुप्त हो चली है।
पिता और पुत्र के रिश्ते का एक बिल्कुल नया और अलग दौर पूंजीवाद के आगमन और शिक्षा के प्रसार के साथ शुरू हुआ। शहरों में नए-नए कल-कारखाने बने और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का जाल बिछने लगा। खेती पर लगातार बढ़ते बोझ की वजह से नौकरी की तलाश में गांवों से बड़े शहरों में स्थानांतरित होने वाले युवाओं के साथ एकल परिवार की शुरुआत हुई। घर के बड़े-बुजुर्ग अपने खेत, अपने पशुओं, अपने पैतृक घरों और अपने पारंपरिक जीवन मूल्यों के साथ गांवों में रह गए और स्वतंत्रताकामी युवाओं ने शहरों में आकर एकल परिवारों की नई व्यवस्था को जन्म दिया। एकल परिवार की यह व्यवस्था आज के समय का सर्वमान्य सच है। इसकी अपनी अच्छाईयां और खामियां है। ऐसे परिवार ने घर के बुजुर्गों को जितना अकेला किया हो, पिता और उसकी संतानों के बीच एक खुले रिश्ते की शुरुआत इसी व्यवस्था में संभव हुई। अपने काम के बाद अब पिता के पास संतानों को देने के लिए वक्त है। परंपराओं का दबाव और घर के बड़े-बुजुर्गों का संकोच अब पत्नी और बच्चों के साथ उसके रिश्ते के आड़े नहीं आते। संतानों की परवरिश, चिंता और शिक्षा में अब मां के साथ पिता की भी भूमिका है। खुलेपन के कारण पिता और संतानों के रिश्ते में आपसी समझदारी, संवेदना और भावुकता का समावेश हुआ है। अब पिता संतानों के लिए घर में एक असहज उपस्थिति नहीं रहा। उनके बीच सामान्यतः एक दोस्ताना संबंध शक्ल ले चुका है। बच्चे अब अपनी समस्याएं और उलझनें मां के अलावा पिता के साथ भी साझा कर सकते हैं। शिक्षित और समझदार पिता के पास बदली हुई परिस्थितियों में अपनी संतानों की समस्याओं, ख्वाहिशों, संघर्षों, जीवन शैली और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कामना को समझने और उनके साथ सामंजस्य बिठाने का विवेक है। वह अपनी संतान को वह स्पेस देने को तैयार है जो संयुक्त पारिवारिक व्यवस्था में खुद उसे नहीं मिल पाया था।
रिश्तों की दुनिया में आज पिता कोई रहस्य नहीं रहा। संतानें भी अब अबूझ नहीं हैं पिता के लिए। न पिता संतानों के सामने खुद को व्यक्त करने से बचते हैं और न संतानों को उनके आगे दिल खोलने में किसी भय का अहसास होता है। उनके बीच के संबंध का यह शायद अबतक का सबसे बेहतरीन दौर है। एकल परिवारों के इस दौर की एक बड़ी खामी यह है कि खुद पिता के बुजुर्ग माता-पिता परिवार की मुख्यधारा से लगभग वहिष्कृत और अकेले खड़े हैं। पिता अपनी संतानों के साथ जितने सहज हैं, अपने पिता के साथ उतने ही असहज। देश के तमाम वृद्धाश्रमों और तीर्थस्थलों में बुजुर्गों की बढ़ती संख्या एकल परिवारों के इसी अवांछित पक्ष का बयान है। लोग अपनी चिंताओं में अपने बच्चों के साथ मां-बाप को भी शामिल कर सकें तो पिता और संतानों के रिश्ते के इस दौर का जवाब नहीं वरना लाखों साल के बाद हमने इस रिश्ते में जितना हासिल किया है, उतना गंवा भी रहे हैं। वैसे दौर कोई भी हो, बदलता जरूर है। देर-सबेर यह दौर भी बदलेगा। जीवन की जटिलताएं बढ़ने, विवाहेत्तर यौन संबंधों की बढ़ती स्वीकार्यता और व्यक्तिगत आजादी की लगातार बढ़ती भूख के दबाव में अब मानवता की सबसे बड़ी उपलब्धियों में एक परिवार नाम की संस्था टूटने के कगार पर है। पश्चिमी देशों में इस टूटन में तेजी आई है। अपने देश में भी ‘लिव इन रिलेशन’ के बढ़ते चलन ने इस आशंका को जन्म तो दे ही दिया है कि पिता और उसकी संतानों के बीच रिश्ते का एक और नया दौर अब शायद बहुत दूर नहीं है। यह दौर विकास के पहले दौर की तरह अराजक शायद न हो, लेकिन यह डर जरूर है कि अपनी मानसिक, भावनात्मक और कानूनी जटिलताओं के कारण वह दौर पिता और संतानों के बीच के रिश्ते के लिए ही नहीं, मनुष्यता के लिए भी शायद अबतक का सबसे भयावह दौर साबित होगा !
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