कोरोना : तुगलकी फैसलों की कीमत!
जयशंकर गुप्त
कोरोना या कहें कोविड 19 के मामले में क्या हम अपने हुक्मरानों के ‘तुगलकी फैसलों’ की कीमत चुका रहे हैं! 30 जनवरी को जब देश में पहला कोरोना मरीज मिला था, हमें अंतरराष्ट्रीय उड़ानों को बंद अथवा नियंत्रित करना शुरू कर देना चाहिए था लेकिन कोरोना से प्रभावित अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अगवानी के मद्देनजर भारत में ऐसा कुछ भी नहीं किया गया. 24 फरवरी को ट्रंप के साथ या आगे-पीछे कितने अमेरिकी आए, उनमें से कितनों की कोरोना जांच हुई! किसी को पता नहीं! ‘नमस्ते ट्रंप’ के नाम पर एक लाख से अधिक लोगों की भीड़ जुटाकर अहमदाबाद के मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम में उनका सम्मान किया गया! किस बात के लिए, समझ से परे है. इस समय अहमदाबाद देश में दूसरे नंबर का सबसे बड़ा ‘कोरोना हाट स्पॉट’ शहर बन गया है.
12 मार्च 2020 को कर्णाटक के कलबुर्गी में पहले कोरोना संक्रमित की मौत के साथ जब केसेज बढ़ने लगे और फीजिकल डिस्टैंसिंग जरूरी हुआ तो हमारे शासकों ने आपदा को राजनीतिक अवसर के रूप में भुनाने की रणनीति के तहत मध्य प्रदेश में कांग्रेस के विधायकों की खरी फरोख्त से तख्ता पलट का इंतजार किया. 12 मार्च को दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के विस्तार और तकरीबन पांच हजार मौतों के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे महामारी घोषित कर दिया लेकिन हमारे शासकों ने इसे गंभीरता से लेने के बजाए, हंसी में टालते रहे.
22 मार्च को जब दुनिया भर में कोरोना से मरनेवालों का आंकड़ा 14647 पहुंच गया, हमारे यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार एक दिन का ‘जनता कर्फ्यू’ और दो दिन बाद ‘लॉकडाउन’ लागू किया. कायदे से 22 मार्च को जनता कर्फ्यू घोषित करने के साथ ही देशवासियों को एहतियाती इंतजाम करने के लिए लॉकडाउन घोषित करने से पहले समय देकर इसको लागू करने की चेतावनी देनी थी ताकि उस दरम्यान यत्र-तत्र फंसे लोग अपने गंतव्य को पहुंच जाते. उस समय आज के मुकाबले कोरोना का कहर बहुत कम था. लेकिन 24 मार्च की शाम आठ बजे प्रधानमंत्री ने ‘आकाशवाणी’ कर चार घंटे बाद यानी रात के 12 बजे से देशवासियों को एक झटके में लॉकडाउन और ‘सोशल डिस्टैंसिंग’ (हालांकि यह गलत शब्द है, सही शब्द है फीजिकल डिस्टैंसिंग) के हवाले कर दिया. नहीं सोचा गया कि रोजी-रोटी का धंधा चौपट या बंद हो जाने के बाद गरीब कर्मचारी, दिहाड़ी मजदूर जीवन यापन कैसे करेंगे. उनके मकान का किराया कैसे अदा होगा. उनके बच्चों के लिए दवा-दूध का इंतजाम कैसे होगा. लेकिन तब प्रधानमंत्री के लॉकडाउन पर अमल से 21 दिनों के भीतर कोरोना पर विजय हासिल कर लेने के दावे पर लोगों ने तकलीफ बरदाश्त करके भी भरोसा किया.
आगे चलकर हालत बद से बदतर होती गयी. लोगों के सामने खाने-पीने के लाले पड़ने लगे. एक मोटे अनुमान के अनुसार लॉकडाउन के दौरान कम से कम 90 लाख दिहाड़ी मजदूरों के पेट पर चोट लगी है. और सबसे बड़ी बात कि मीडिया के सहारे मानसिक तौर पर कोरोना का खौफ इस कदर पैदा कर दिया गया कि किराए के कमरों में रह रहे प्रवासी मजदूर डर से गये. उननके बीच खौफ तारी होने लगा कि अगर वे कोरोना से संक्रमित अथवा किसी और बीमारी से भी पीड़ित हो गये तो उनकी देखभाल, तीमारदारी कौन करेगा. उनके साथ कुछ गलत हो गया, किसी की मौत हो गई तो अपनों के बीच उनकी अंतिम क्रिया भी कैसे संभव हो सकेगी. यह सब कारण एक साथ जुटते गये और उन्हें किसी भी कीमत पर शहर-महानगर छोड़कर अपने गांव घर लौटना ही श्रेयस्कर लगा. वे लोग भूखे-प्यासे पैदल या जो भी साधन मिले उससे अपने गांव घर की ओर चल पड़े. उस समय कोरोना का कहर और प्रसार इस देश में उतना व्यापक और भयावह नहीं था जितना मई महीने से बढ़ गया है, लेकिन तब प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए एक तरफ तो रेल-बसें चलाने के बजाय उन्हें गांव-घर लौटने के लिए हतोत्साहित किया गया, तो दूसरी तरफ दिल्ली जैसे शहरों में सीमा पर प्रवासी मजदूरों को उनके गांव पहुंचाने के लिए बसों का इंतजाम करने से संबंधित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के ट्वीट के बाद प्रवासी मजदूर लॉकडाउन और फीजिकल डिस्टैंसिंग को धता बताकर हजारों की संख्या में आनंद विहार रेलवे-बस स्टेशन के पास जमा हो गये. बिना विचारे कि उनकी भीड़ कोरोना के प्रसार में सहायक सिद्ध हो सकती है. बाद में उन्हें बसों से दिल्ली के बाहर ले जाया गया. इसके साथ ही पैदल यात्रियों को रास्ते में मारा-पीटा, अपमानित भी किया गया. रास्ते में स्थानीय लोगों और कहीं कहीं पुलिस-प्रशासन की मानवीयता के लाभ भी उन्हें हुए. लोगों ने खाने-पीने की सामग्री से लेकर जगह-जगह उन्हें कुछ पैसे भी दिए.
‘कोरोना को हराना है’ का ‘मंत्र वाक्य’ देनेवाले प्रधानमंत्री मोदी अब कहने लगे हैं, ‘कोरोना के साथ हमें जीना सीखना है!’
कितने तरह के कष्ट झेलते हुए वे मजदूर और उनके परिवार सैकड़ों किमी पैदल चलकर, सायकिल, ठेले, ट्रक, यहां तक कि मिक्सर गाड़ियों में छिपकर भी अपने गांव घरों को गये! उनमें से सौ से अधिक लोगों ने रास्ते में सड़कों पर कुचलकर, रेल पटरी पर मालगाड़ी से कटकर या फिर भूख-प्यास और बीमारी से दम तोड़ दिए. भोजन के अधिकार के लिए काम करनेवाले संगठन ‘राइट टू फूड’ के अनुसार 22 मई तक देश में भूख प्यास, दुर्घटना और इस तरह के अन्य कारणों से 667 लोग काल के मुंह में समा चुके हैं. इसमें और इजाफा ही हुआ है.
लेकिन अब जबकि एक तरफ देश और प्रदेशों की अर्थव्यवस्था भी दम तोड़ने और खस्ताहाल होने लगी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कहने पर हमने ताली-थाली बजा ली, मोम बत्ती और दिए भी जला लिए, देश के बड़े हिस्से में कोरोना का कहर भी रौद्र रूप धारण कर चुका है. दो लाख से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं, इनमें से तकरीबन 99 हजार लोग इलाज से ठीक हो चुके हैं जबकि 5700 से अधिक लोग मर चुके हैं, हमारे हुक्मरान लॉकडाउन में ढील पर ढील दिए जा रहे हैं. प्रदेशों की सीमाएं खोली जा रही हैं. रेल, बस, टैक्सी और विमानसेवाएं शुरू की जा रही हैं. हालांकि श्रमिक स्पेशल रेल गाड़ियों के कुप्रबंध के कारण ये रेल गाड़ियां विलंबित गति से नियत स्टेशन के बजाय कहीं और पहुंचने लगीं. मुंबई से गोरखपुर के लिए निर्धारित स्पेशल ट्रेन ओडिशा के राउरकेला पहुंचा दी गई. इसमें लंबा समय लगा लेकिन रेलवे ने कहा कि ऐसा रूट कंजेशन को देखते हुए जानबूझकर मार्ग बदले जाने के कारण हुआ. लेकिन न तो इसकी पूर्व सूचना यात्रियों को दी गई और ना ही उनके लिए खाने-पीने के उचित प्रबंध ही किए गये. नतीजतन रेल सुरक्षा बल (आरपीएफ) के आंकड़ों के अनुसार ही अस्सी से अधिक लोग रेल गाड़ियों में ही मर गये.
दूसरी तरफ, प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों के साथ कोरोना अब देश के अन्य सुदूरवर्ती और ग्रामीण इलाकों में भी फैलने लगा है. वहां कोरोना की जांच, चिकित्सा और उन्हें क्वैरेंटाइन करने के पर्याप्त संसाधन और केंद्र भी नहीं हैं. फसलों की कटाई समाप्त हो जाने के कारण अब उनके लिए, गांव-घर के पास, जिले अथवा प्रदेशों में भी रोजी रोटी के पर्याप्त साधन नहीं रह गये हैं. अगर साधन होते ही तो इन्हें गाव-घर छोड़कर दूसरे राज्यों में क्यों जाना पड़ता!
इधर, ढील बढ़ने, कल कारखाने, दुकानें खुलने, टैक्सी, ऑटो रिक्शा, ई-रिक्शा और रिक्शा चलने लगने और निर्माण कार्य शुरू होने के के कारण शहरों-महानगरों में श्रमिक-मजदूरों की किल्लत शुरू होने लगी है. जाहिर सी बात है कि आनेवाले दिनों में ग्रामीण इलाकों में रोजी-रोजगार के अभाव और शहरों-महानगरों में रोजगार के अवसर बढ़ने के कारण प्रवासी मजदूरों का बड़ा तबका शहरों-महानगरों की वापसी का रुख करेगा लेकिन आते समय वह अपने साथ कोरोना के वायरस नहीं लाएगा, इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता. साफ है कि हमारे शासकों-प्रशासकों में दूर दृष्टि के अभाव और उनके तुगलकी फैसलों के कारण पहले कोरोना का अदृश्य वायरस शहरों से गांवों में गया और आनेवाले दिनों में वह ग्रामीण इलाकों से शहरों में लौटेगा. आज भारत देश कोरोना संक्रमितों की संख्या के मामले में जर्मनी और फ्रांस को पछाड़ते हुए दुनिया में सातवें नंबर पर आ चुका है और अब तो विशेषज्ञ इसके भारत में इसके सामुदायिक स्तर पर फैलने की बात भी करने लगे हैं. और यह तब है जबकि कुछ राज्य अपने यहां कोरोना संक्रमितों और इससे मरनेवालों की संख्या छिपाने भी लगे हैं. कुछ राज्य कोरोना संक्रमण की जांच किट के अभाव में या कहें कोरोना संक्रमित अधिक होने की ‘बदनामी’ से बचने के नाम पर भी अपने राज्य में कोरोना संक्रमण के टेस्ट कम करवा रहे हैं. गुजरात सरकार ने तो बाकायदा हाईकोर्ट में एफिडेविट देकर कहा है कि अगर जांच अधिक हुई तो राज्य की 70 फीसदी आबादी कोरोना से संक्रमित मिल सकती है. मतलब साफ है, दावे चाहे कैसे भी किए जाएं, अभी हाल-फिलहाल कोरोना से मुक्ति के आसार कम ही हैं बल्कि इसका कोप और अधिक बढ़ने की आशंका ज्यादा लग रही है. ‘कोरोना को हराना है’ का ‘मंत्र वाक्य’ देनेवाले प्रधानमंत्री मोदी अब कहने लगे हैं, ‘कोरोना के साथ हमें जीना सीखना है!’
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