सामाजिक न्याय के साथ विकास और अब गोवार-भूमिहार की सरकार
सामाजिक न्याय, न्याय के साथ विकास और अब गोवार-भूमिहार की सरकार
————– वीरेंद्र यादव ——————
राजनीति में जनता के साथ कम्यूनिकेट करने में मुहावरों और नारों की बड़ी भूमिका रही है। समाजवादी आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत नारा ही हुआ करते थे। पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र प्रसाद यादव हैं। उनके कार्यालय में नारों की लिस्ट ही टंगी हुई है।
1990 के बाद बिहार में गैरसवर्ण सत्ता का दौर शुरू हुआ। इसमें सामाजिक न्याय का नारा खूब बुंलद हुआ। नीतीश कुमार ने गैरयादव पिछड़ों की गोलबंदी शुरू की और यादवों को ‘खलनायक’ के रूप में प्रस्तुत करने का अभियान शुरू किया। उस समय उन्होंने नारा दिया- सामाजिक न्याय के साथ विकास। लेकिन यह नारा लंबे समय तक नहीं चला। अपने दम पर लालू यादव की ताकत को शिकस्त देने की स्थिति में नीतीश नहीं थे। वैसे में उन्हें भाजपा से धन और जन दोनों की जरूरत पड़ रही थी। इसलिए वे भाजपा के कुनबे में शामिल हुए। जिस आधार की राजनीति कर रहे थे, उसके साथ भितरघात की। ‘सामाजिक न्याय के साथ विकास’ में सामाजिक शब्द गैरसवर्णों का पर्याय था, जो भाजपा को स्वीकार नहीं था। इसलिए नीतीश का नया नारा हो गया- ‘न्याय के साथ विकास’।
नारों की राजनीति में अब नया नारा गढ़ा जा रहा है- अबकी गोवार-भूमिहार की सरकार। दरअसल बिहार में अब नया समीकरण गढ़ा जा रहा है। इस पर विचार की प्रक्रिया शुरू हुई। सोच यह बन रही है कि यदि बिहार की राजनीति में यादव और भूमिहार एक साथ आ जायें तो क्या होगा। दोनों जातियों की अपनी-अपनी मजबूरी है। यह फैक्ट है कि यही दो जातियां सत्ता होने या खोने को लेकर सबसे ज्यादा बेचैन होती हैं। बिहार में 15 साल सत्ता में रहने के बाद भी कुर्मी जाति में यह ‘सत्ता बोध’ नहीं आया है। वजह है कि नीतीश कुमार ने कुर्मी वोट की राजनीति की है, कुर्मी स्वाभिमान की नहीं।
यदि श्रीकृष्ण सिंह के शासन काल में भूमिहारों ने सत्ता का दोहन किया तो लालू यादव राज में यादवों ने सत्ता को स्वाभिमान से जोड़कर खुद को अपलिफ्ट किया। इसका फायदा दूसरी उपेक्षित जातियों को भी मिला। नीतीश कुमार ने यादवों के इसी ‘अपलिफ्टमेंट’ के खिलाफ राजनीति की अलग धारा शुरू की थी, जो सवर्ण सरोकार की धारा में विलीन हो गयी। यही कारण था कि नीतीश कुर्मी स्वाभिमान की चेतना पैदा नहीं कर पाये।
हम नारों की बात कर रहे थे। भाजपा का बेस वोट भूमिहार जाति है, लेकिन संगठन में वह हाशिये पर है। सभी प्रमुख पदों को पिछड़ों को सौंप दिया गया है। इससे भूमिहारों में आक्रोश भी है। राजद इसी आक्रोश को अपने पक्ष में तब्दील करना चाहता है, लेकिन दोंनो जातियों में परंपरागत रूप से एक-दूसरे के विरोध करने की राजनीति बाधा आ रही है।
राजद अपनी ओर से भूमिहारों का भरोसा हासिल करने का प्रयास कर रहा है। राजद के एक भूमिहार सांसद इस दिशा में लगातार बयान दे रहे हैं और राजद में भूमिहारों को विधान सभा चुनाव में टिकट देने का विश्वास भी दिला रहे हैं। हालांकि वह सांसद अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए कितना विश्वसनीय हैं, यह भी एक बड़ा सवाल है। जिस दिन वे राज्यसभा चुनाव के लिए नामांकन करने गये थे, उस दिन पार्टी के शायद ही कोई विधायक उनके नाम से परिचित थे। प्रस्तावक विधायक भी अंधुआये घूम रहे थे कि उम्मीदवार कौन हैं।
इसके बावजूद राजद की ओर से भूमिहार समेत अन्य जातियों को जोड़ने का प्रयास शुरू हो गया है। उन्हें भी सत्ता में हिस्सेदारी का भरोसा दिलाया जा रहा है। वैसे में संभव है एक और नया नारा बन जाये- अबकी बार, गोवार-भूमिहार की सरकार।
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