लॉकडाउन में प्रतिरोध का अनूठा अहसयोग मार्च

अरुण कुमार त्रिपाठी
शहर से गांवों की ओर पलायन करते लाखों मजदूरों ने सरकार और उसके आदेश को बड़ी विनम्रता के साथ खारिज कर दिया है। यह एक तरह का असहयोग मार्च था जिसकी कोई घोषणा नहीं हुई थी और जिसका कोई नेता नहीं था। इसमें न तो कोई हिंसा थी और न ही कोई द्वेष। यह अपनी मातृभूमि के लिए प्रेम और मोह से भरा एक प्रतिरोध था जो सरकारों की शक्ति और हेकड़ी को ठेंगा दिखा रहा था। 25 मार्च को जबसे कोरोना महामारी के संक्रमण की कड़ी तोड़ने के लिए तालांबदी आरंभ हुई और लोगों को सड़क पर न निकलने और आपस में दो गज दूरी बनाए रखने का प्रधानमंत्री ने सुझाव दिया तबसे लाखों मजदूर झुंड बनाकर या अपने अपने परिवार के साथ हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर चल पड़े हैं। वे लाठी डंडे भी खा रहे हैं कहीं ट्रकों में भर कर जा रहे हैं तो कहीं मिक्सर के भीतर सीमेंट और गिट्टी की तरह भरे हुए गांव भागे जा रहे हैं। बाद में जब कुछ बसें और गाड़ियां चलीं तो उसमें भी घर लौटने के प्रयास में लगे लेकिन थोड़ी सफलता के बाद वे फिर हार कर सड़क, रेल की पटरी और नदियों की धारा पार कर वापस आने लगे।
कुछ पत्रकारों और विश्लेषकों का कहना है कि इन मजदूरों में सरकार के प्रति न तो कोई गुस्सा है और न ही वे इसके लिए उसे दोषी ठहरा रहे हैं। यानी उनमें किसी तरह की श्रमिक चेतना नहीं है। इसलिए यह मजबूरी में चल रहा मजदूरों का श्रमिक चेतना विहीन पलायन है। यहां पर मृणाल सेन की 1982 की `खारिज’ नाम की एक बांग्ला फिल्म याद आती है। रमापद चौधरी के उपन्यास खारिज पर आधारित यह फिल्म कोलकाता के मध्यवर्गीय परिवार में काम करने वाले एक घरेलू बाल मजूदर के रसोई में दम घुटने से मर जाने की कहानी है। 1981 में कोलकाता में जबरदस्त शीत लहर आती है और रसोई में अंगीठी जलाकर सोने वाला नौकर जब रसोई का दरवाजा नहीं खोलता तो उसे तोड़ा जाता है और अंदर से उसकी लाश मिलती है। मध्यवर्गीय परिवार पहले तो उसकी मौत के कारणों को लेकर विस्मित है और दूसरे नंबर पर उसके भीतर पुलिस का भय भी है। तीसरी अवस्था उसके अपराध बोध की है। जब पोस्टमार्टम में यह स्पष्ट हो जाता है कि नौकर की मौत अंगीठी के कार्बन मोनोआक्साइड से हुई है तो मध्यवर्गीय परिवार थोड़ी राहत की सांस लेता है। लेकिन जब नौकर का पिता गांव से लाश लेने आता है तो मध्यवर्गीय दंपत्ति अपराध बोध से भर जाता है। शहरी परिवार चाहता है कि नौकर का पिता उन्हें कुछ कहे लेकिन वह खामोश रहता है।
फिल्म अपराध बोध से भरे उस मध्यवर्ग पर है जिसके व्यवहार को मजदूर वर्ग बिना कुछ कहे सहता जाता है। नौकर के पिता और उसके जैसे दूसरे कामगारों का गुस्सा न होना उस परिवार को सालता है। पलायन की मौजूदा स्थिति लगभग वैसी ही है। छिटपुट घटनाओं के अलावा मजदूरों ने न तो कहीं हिंसा की है और न ही किसी रिपोर्ट में यह कहा है कि वे सरकार या प्रधानमंत्री से बहुत नाराज हैं और उनका विरोध करेंगे। वे इस सरकार के व्यवहार को उस नौकर के पिता की तरह ही खारिज कर रहे हैं। इस बीच एक मई की तारीख भी आई और मजदूरों ने बिना उस दिवस को याद किए हुए अपना पलायन मार्च जारी रखा। कई राज्य सरकारों ने मजदूर कानूनों को मुअत्तल कर दिया लेकिन उस पर भी मजदूरों की ओर से आम तौर पर खामोशी ही रही।
ट्रेड यूनियनों का विरोध अपनी जगह है और उन्होंने 22 मई को प्रतिरोध किया भी लेकिन असंगठित क्षेत्र जो कि श्रमिकों के 95 प्रतिशत हिस्से से संबंधित है वह आमतौर पर खामोश है। यह खामोशी वही है जिसे मार्क्स ने मजदूरों में आने वाली अलगाव की भावना कहा था। अलगाव की यह भावना चार स्तरों पर होती है। पहला मजदूर श्रम के उत्पादों से अलगाव महूसस करते हैं। वे श्रमिक गतिविधियों से अलगाव महसूस करते हैं। वे अपनी विशिष्ट मानवता से अलगाव महसूस करते हैं और वे समाज से भी अलगाव महसूस करते हैं। यह बातें मजदूरों के इस तालाबंदी मार्च में देखी जा सकती हैं।
लेकिन उसके साथ एक और बात भी देखी जा सकती है जिसके लिए गांधीवादी दृष्टि अपेक्षित है। गांधी कहते थे अपने किसी भी प्रतिद्वंद्वी से घृणा और विद्वेष किए बिना अगर उसकी कोई बात बुरी लग रही है तो अपने को उससे अलग कर लेना चाहिए। उसका पालन करने से इनकार कर देना चाहिए। फिर चाहे जितना दंड सहना पड़े उसके लिए तैयार रहना चाहिए। अन्याय पूर्ण कानूनों के पालन से इनकार करना वे अपना कर्तव्य मानते थे और कहते थे कि ऐसा ईश्वर का आदेश है। गांधी रोलैट एक्ट, साइमन कमीशन और नमक कानून को अन्यायपूर्ण मानते थे और उन्होंने उसके पालन से इनकार कर दिया। उन्हीं के साथ लाखों लोगों ने इनकार किया और उसका दंड भी भुगता।
मजदूरों का यह पलायन एक प्रकार से तालाबंदी के विरुद्ध असहयोग मार्च है। जो लोग इसे प्रधानमंत्री की बढ़ती लोकप्रियता के संदर्भ में देख रहे हैं और उसके लिए सर्वे के आंकड़े प्रस्तुत कर रहे हैं वे करते रहें। वे किसी के कहने से मानने वाले नहीं हैं। लेकिन मजदूरों ने तालाबंदी के नियमों की अनदेखी और मध्यवर्गीय मान्यताओं का उल्लंघन करते हुए अपने असहयोग मार्च से जता दिया है कि उनका वर्ग और उनका हिंदुस्तान उन लोगों से अलग है जो सिर्फ आदेश जारी करना जानते हैं। संभव है उन्होंने इस सरकार को वोट दिया हो और आगे फिर दें लेकिन इस समय लाखों की संख्या में शहरों की ओर से गांवों की तरफ जो वापसी हुई है वह कल्पनातीत है। मजदूरों को रोकने के लिए महामारी का डर दिखाया गया, कानून का भय दिखाया गया, अपने गांवों में अलग थलग कर दिए जाने का खौफ भी प्रस्तुत किया गया। इस बीच भोजन देने का और फिर नौकरी देने का प्रलोभन भी उद्योगपतियों ने दिया। लेकिन उन्होंने अपने व्यवहार से बता दिया कि वे धरती के असली पुत्र हैं और अभय हैं। यानी वे न तो किसी को डराते हैं और न ही किसी से डरते हैं।
मजदूरों के इस मार्च का वातावरण 1947 की तरह ही सरकारी फैसले से तैयार किया गया। तबकी सरकार की तरह ही इस सरकार को भी तालाबंदी के फैसले के परिणाम का अंदाज नहीं था, क्योंकि सरकारें सिर्फ मध्यवर्ग की राय और सुविधा को ही जनमत मानती हैं या सीमित सलाहकारों की राय को महत्त्व देती हैं। लेकिन सैंतालीस से 2020 में यही अंतर है कि इस मार्च में मजदूरों ने न तो सरकारी संपत्ति के प्रति किसी तरह का हिंसा का प्रदर्शन किया और न ही किसी धर्म और जाति के प्रति ईर्ष्या और द्वेष का भाव दिखाया। लेकिन उनके भूखे पेटों, थके पैरों और प्यास व निराशा से भरे चेहरों ने प्रतिरोध की लाखों कहानियां कह दी हैं जिस पर लिखा जाना और जिसका विश्लेषण किया जाना शेष है।






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