निराला विदेशिया
आज 28 अप्रैल है। ऐतिहासिक दिन। पूरे देश के लिए। बिहार के लिए तो और विशेष। 1928 का साल था। आज ही की रात थी,जब बिहार का एक नौजवान अपनी नवविवाहिता पत्नी को, उसके 14 माह के बच्चे के साथ,पत्नी के मायके से लेकर निकल गया था। गया जिले के एक सुदूर गांव मंझवे से। वह नौजवान कोई और नही, रामनन्दन थे। बिहार के राजनीतिक इतिहास के एक अनोखे नायक। शाश्वत विद्रोही नायक।
हुआ यह था कि गांधी जी दरभंगा आये। दरभंगा आये तो उन्होंने देखा कि महिलाएं तो सभा मे आयी हैं लेकिन बीच में पर्दा डाला हुआ है। गांधी जी लौट गये। लौटकर उन्होंने यंग इंडिया में एक लेख लिखा। पर्दा प्रथा के खिलाफ। रामनन्दन कालेज में पढ़ते थे। वह भी गांधी की उस सभा मे श्रोता बनकर गये थे। यंग इंडिया के लेख के बाद रामनन्दन ने गांधी जी को पत्र लिखा। लंबे पत्र में उन्होंने लिखा कि वह अपनी पत्नी से ही प्रयोग करना चाहते हैं। पर्दा प्रथा तोड़ना चाहते हैं। रामनन्दन के पत्र की भनक घर में लग गयी। उनका अपने पिता से विवाद शुरू हुआ। गांधी जी ने पंचायती की। तय हुआ कि अभी पर्दा विरोधी अभियान स्थगित रहेगा लेकिन गाँधीजी अपने साबरमती आश्रम से किसी को भेजेंगे जो रामनन्दन की पत्नी राजकिशोरी को पढ़ा सके। शिक्षा दे सके। स्त्री शिक्षा से इसकी शुरुआत हो। पहले तय हुआ कि मणिबेन पटेल आएंगी। फिर बाद में गांधी ने अपने सबसे प्रिय भतीजे मगनलाल गांधी की बेटी राधा गांधी और दुर्गा बाई को भेजा। इधर रामनन्दन के घर में विवाद बढ़ गया था तो तय हुआ कि यह पढ़ने पढ़ाने का काम राजकिशोरी के नैहर मंझवे में हो। राजकिशोरी मंझवे गयीं। राधा गांधी और दुर्गाबाई भी वही पहुंची। पढ़ाने का काम शुरू हुआ। 13 अप्रैल 1928 को मगनलाल गांधी अपनी बेटी राधा से मिलने आये। वह मंझवे गये। वहां उनकी तबियत खराब हुई। तबियत ऐसी खराब हुई कि फिर वह बिहार से लौट न सके। पटना में इलाज हुआ। 22 अप्रैल को वे गुजर गए। उनकी मृत्युशैया पर ही तय हुआ कि अब बिहार में पर्दा टूटेगा। रामनन्दन ने आगे बढ़कर संकल्प लिया। पिता की मृत्य के बाद राधा गांधी भी अब लौट जाना चाहती थी। रामनन्दन का सवाल था कि अब राजकिशोरी का क्या होगा। गांधी ने तार भेजा कि राजकिशोरी को भी राधा के साथ साबरमती भेज दो। रामनन्दन के परिवार तक खबर पहुची। हड़कम्प मचा। जमनालाल बजाज पटने में थे। उनसे लोग मिले कि ऐसा नही होना चाहिए लेकिन गांधी का तार था,आदेश था,कौन टालता। अब सवाल उठा कि राधा, दुर्गा, राजकिशोरी को लेकर साबरमती कौन लेकर जाए। नाम तय हुआ अनुग्रह नारायण सिन्हा का। तय हुआ कि पटना से सब जाएंगे लेकिन राजकिशोरी तो मंझवे में थीं। अपने नैहर में। रामनन्दन गया पहुचे। 28 अप्रैल को। भाड़ा पर गाड़ी लिए। अपने ससुराल पहुचे रात को। राजकिशोरी से कहा कि चलना है तो अभी चलो,दिन निकल आने पर निकलना मुश्किल हो जाएगा। राजकिशोरी अपने 14 माह के बच्चे के साथ तैयार। मंझवे में रामनन्दन के ससुराल वाले भी जान गए। रोकना चाहे लेकिन रामनन्दन अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर निकल गए। रामनन्दन के ससुर ईश्वरी बाबू को आपत्ति न थी। उनका कहना था कि रामनन्दन बाबू, इस संसार मे तो लोग विद्वान,धनी,सुखी होना चाहते हैं। आप तो केवल देश की सेवा करना चाहते हैं। इसमें भी अगर आप सफल न हुए,मेरी लड़की ने साथ नही दिया तो आपका और उसका, दोनों का जीवन व्यर्थ जाएगा। राजकिशोरी को लेकर रामनन्दन पटना पहुचे।
पटना से अनुग्रह बाबू सबको लेकर साबरमती निकल गए। यह पहली बुनियाद थी बिहार में पर्दा प्रथा तोड़ने की। आज के दिन ही रखी गयी थी। रामनन्दन ने रखी थी नींव। उसके बाद तो आंदोलन व्यापक चला। रामनन्दन के जीवन मे बहुत बदलाव आए। वह कहानी फिर कभी। आज 28 अप्रैल था तो बगावत,विद्रोह से समाज निर्माण की बुनियाद तैयार करने की इस ऐतिहासिक घटना की याद आयी। #रामनन्दन #बाबूजीकेबापूजी
(निराला विदेशिया के फेसबुक टाइमलाइन से साभार)
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