कोरोना क्रांति के बाद क्या होगा दुनिया में
अरुण कुमार त्रिपाठी
कोविड-19 अगले छह महीने में खत्म होगा या उससे भी जल्दी, कुछ ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता। लेकिन एक बात जरूर है कि इसका प्रभाव खत्म होने के बाद दुनिया का आख्यान वह नहीं रहेगा जो आज है। बीसवीं सदी की महान उपलब्धियों पर गर्व करने वाले इजराइली इतिहासकार जुआल नोवा हरारी और उनसे प्रभावित बौद्धिकों को सोचना होगा कि हमारी अजेय वैज्ञानिक क्षमताएं वास्तव में कितनी अजेय हैं। कुदरत अभी भी हमसे ज्यादा ताकतवर है या हम उससे अधिक शक्तिशाली हो चुके हैं। लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है या मनुष्य के लिए अधिनायकवाद की ओर लौटना लाजिमी होगा? आर्थिक वैश्वीकरण उचित है या इनसान को राष्ट्रवाद और क्षेत्रवाद के दायरे में सिमट जाना पड़ेगा? सोचना यह भी पड़ेगा कि हमारे इतिहासकार बीसवीं सदी में जिन समस्याओं का हल तय मान चुके हैं, वे नई सदी में किस रूप में प्रकट होंगी?
कोरोना ने हरारी के इस कथन को चुनौती दे दी है कि अब मानव सभ्यता युद्ध, अकाल और महामारी से तबाह नहीं होगी। उनका दावा था कि हमने इन लंबे समय से चली आ रही इन समस्याओं को जीत लिया है यानी होमो सेपियन्स अब होमो डियस बन चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना से निपटने के लिए जिस तरह 21 दिनों की अभूतपूर्व राष्ट्रीय तालाबंदी करते हुए लोगों के घर के बाहर लक्ष्मण रेखा खींचकर उन्हें अंधविश्वास से दूर रहने की सलाह दी है, लगता है इस समय में वही एक मात्र उपाय है। लेकिन यह उपाय हमारी स्वास्थ्य संबंधी तैयारी और सामान्य जन की आर्थिक जरूरतों की पूर्ति संबंधी सवाल भी खड़ा करते हैं। प्रधानमंत्री ने पहले सार्क देशों से वीडियो कांफ्रेंसिंग की थी और एक ऐसी पहल दिखाई थी जिसमें राष्ट्रवादी कटुता मिटती और मानवता का दायरा फैलता दिख रहा था। लेकिन इस बार उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि सबको अपना बचाव स्वयं ही करना होगा यानी वैश्वीकरण की भावना टिक नहीं पा रही है और उल्टे मीडिया के कुछ हिस्सों में पाकिस्तान द्वेष और अंधविश्वास की चर्चा चिंता पैदा करती है। संकुचित विचारों से संचालित होने वाली राजनीति और मीडिया यह समझ पाने में असमर्थ है कि यह समय सभ्यताओं के संघर्ष के सिद्धांत से बाहर निकलने का है। शायद कोरोना ने हमें यह सोचने का अवसर भी दिया है कि किसी एक समुदाय, देश या आतंकवाद से बड़ा खतरा एक अदृश्य संरचना है जो हमारी सारी प्रगति को नेस्तनाबूद कर सकती है।
लेकिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय भाईचारा कायम होने की फिलहाल जो आशा है वह बहुत दूर तक नहीं जाती। इसका सबसे बड़ा प्रमाण चीन और अमेरिका की उस बहस में दिखता है जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसे चीनी वायरस बता रहे हैं तो चीन इसे अमेरिकी प्रयोग की चूक कह रहा है। चीन इस बात से नाराज है कि इस बायरस के साथ उसके देश का नाम जोड़ा जा रहा है। जबकि अमेरिकी अधिकारी कह रहे हैं कि 1918 में भी तो फ्लू को स्पैनिश फ्लू कहा गया था। इस तरह के आख्यान से राष्ट्रीय कट्टरता से नजदीकी और वैश्वीकरण की उदारता से भी दूरी बनती दिखाई दे रही है। इससे भी बड़ी बहस अमेरिका में जनता के स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को लेकर छिड़ गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए चिंतित हैं तो विशेषज्ञ जनता के स्वास्थ्य के लिए।
भय और उम्मीद के इस विरोधाभास के बीच मशहूर दार्शनिक बर्ट्रेन्ड रसेल की `इन्फ्रा रेडियोस्कोप’ कहानी प्रासंगिक लगती है। उन्होंने इस कहानी में परमाणु युद्ध की आशंका के समक्ष मंगल ग्रह से आक्रमण का खतरा उपस्थित किया था। कहानी कहती है कि `इन्फ्रा रेडियोस्कोप’ नामक एक यंत्र से देखा गया है कि मंगल ग्रह के निवासी धरती पर कब्जा करने की योजना बनाते हुए वहां पहुंच गए हैं। वैज्ञानिकों के नाम पर फैलाई गई इस खबर से टकराव को आमादा महाशक्तियां एक हो जाती हैं। लेकिन सद्भाव के लिए तैयार किए गए इस षडयंत्र का भंडाफोड़ हो जाता है और फिर महाशक्तियां आपस में टकराकर नष्ट हो जाती हैं। यह कहानी मनुष्य जाति को एक सीख देने की कोशिश करती है और सचेत करती है कि उसके विनाश का खतरा सन्निकट है। अगर वह अपनी वफादारियों और प्राथमिकताओं को नए तरीके से परिभाषित नहीं करती तो उसे रोक पाना कठिन है। इसी तरह की चेतावनी राशेल कार्सन का उपन्यास `द साइलेंट स्प्रिंग’ भी देता है। वे कीटनाशकों के प्रभाव में हो रहे प्रकृति के विनाश की कल्पना करती हैं और कहती हैं कि एक दिन ऐसा बसंत आएगा जहां कोयल नहीं कूकेगी। नाभिकीय हथियारों से पैदा हो रहे ऐसे ही खतरे के प्रति जान हरसे अपनी रचना `हिरोशिमा’ में आगाह करते हैं। उनका मानना है कि नाभिकीय हथियार सिर्फ खतरा ही नहीं हैं बल्कि हमारे लिए नरक का द्वार खोलते हैं।
मानव निर्मित हथियारों, रसायनों या दूसरे ग्रह के आक्रमणों के इन खतरों की रोशनी में हम कोरोना के मौजूदा खतरे को देख सकते हैं। यूरोप जहां पर लोकतंत्र की मजबूत जड़े देखी जाती हैं और कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वह तानाशाही की आशंका से बहुत दूर चला गया है, वहां युवाओं और बूढ़ों के इलाज में भेदभाव मानवाधिकारों और राज्य के कल्याणकारी चरित्र की अलग ही कहानी कहता है। भारत में भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अस्पताल के वार्ड से निकल कर भागने या कूद कर आत्महत्या करने की कहानी भी इलाज के नाम पर नागरिक अधिकारों के दमन और उससे विद्रोह की कहानी कहते हैं। कोरोना के खत्म होने के बाद यह बहस जरूर उठेगी कि राज्य को स्वास्थ्य के सवाल पर अपने नागरिकों को कितनी स्वतंत्रता देनी चाहिए और कहां तक उसे नियंत्रित करना चाहिए। यह भी बहस उठेगी कि इसे उन देशों ने ज्यादा अच्छी तरह नियंत्रित किया जहां तानाशाही व्यवस्था थी या उन देशों ने जहां लोकतंत्र था। निश्चित तौर पर इस दौरान इटली बनाम चीन और चीन बनाम ब्रिटेन बनाम रूस की बहस भी उठेगी। यह विवाद उस बहस को नया रूप देगा जो उदारीकरण की विफलता के साथ चल रही है और अर्थव्यवस्था के राज्य संरक्षण पर जोर दे रही है।
यही वजह है कि `हाउ डेमोक्रेसी इन्ड्स’ में डेविड रैन्सीमैन लोकतंत्र को खत्म करने के तीन कारणों में एक कारण विनाश को भी बताते हैं। बाकी दो कारण विद्रोह और तकनीकी अधिपत्य हैं। अभी यह कहना कठिन है कि कोराना प्रकृति प्रदत्त विनाश या महामारी है या मानव निर्मित। पर इस बारे में दोनों तरह के सिद्धांत चल रहे हैं। जाहिर है दुनिया की अर्थव्यवस्था को जितनी क्षति मंदी से हुई है उससे कहीं अधिक क्षति इस महामारी से होने जा रही है। इस बीमारी ने वैश्वीकरण के मानवविरोधी स्वरूप को उजागर करने के साथ वैधता प्रदान की है। अब वैश्वीकरण के क्रूर योजनाकारों के लिए यह कहना आसान हो जाएगा कि पूंजी और प्रौद्योगिकी का आदान प्रदान तो ठीक है लेकिन मनुष्यों का निर्बाध आवागमन निरापद नहीं है। यानी दुनिया का वैश्वीकरण फिर पूंजी और प्रौद्योगिकी का वैश्वीकरण होकर रह जाएगा और बीसा व पासपोर्ट के नियमों के कड़े बनाए जाने की ओर जाएगा।
इस बीच अगर अपने अपने देशों को बचाने में पूरी ताकत से जुटे और गुंजाइश मिलने पर दूसरे देशों की मदद करने की पहल से एक उम्मीद बनती है तो अपने को वायरस के वैक्सीन के परीक्षण के लिए प्रस्तुत करते वाशिंगटन राज्य के नील ब्राउनिंग के त्याग से और भी बड़ा संदेश जाता है। नील ब्राउनिंग पूरी दुनिया की चिंता करते हुए इस वायरस का जल्दी से जल्दी अंत चाहते हैं। यह दोनों उम्मीदें मानव सभ्यता की पिछली सदी के आविष्कारों से समृद्ध होती हैं। एक आविष्कार सूचना प्रौद्योगिकी का है और दूसरा आविष्कार है जैव प्रौद्योगिकी का। वे मानव प्रजाति के लिए कहर ला सकते हैं और उसके लिए अमरता की खोज भी कर सकते हैं।
इस दौरान मनुष्य अभय और सहकारिता के सिद्धांत में अटूट विश्वास भी विकसित कर सकता है और भय व संदेह का यकीन भी पुख्ता कर सकता है। कोरोना वायरस ने मानवता के समक्ष यह चुनौती प्रस्तुत की है कि वह साजिश की राजनीति से निकलकर सद्भाव और सहयोग का मजबूत आख्यान कैसे रचे। समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्य चुके नहीं हैं। दुनिया को उनकी जरूरत है और मानवता का कल्याण उसी रास्ते पर चलकर ही होगा। जरूरत उन्हें नए सिरे से परिभाषित करने की है। अगर हम वैसा कर पाएंगे तो बचे रहेंगे, वरना असमानता, गुलामी और शत्रुता के वायरस कोविड-19 से मिलकर हमला करने को तैयार बैठे हैं।
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