सरकार पुलिस से रिजल्ट चाहती है, पुलिस टारगेट देखती है
Vikash Mishra
अगस्त 1990। केंद्र की वीपी सिंह सरकार ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का फैसला ले लिया था। 15 अगस्त को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्र संघ भवन के सामने छात्रों ने हाथों पर काली पट्टी बांधकर मौन जुलूस निकाला था। उस वक्त इलाहाबाद के एसएसपी थे विभूति नारायण राय। उन्होंने छात्रों पर घोड़े दौड़ाने के आदेश दे दिए थे। 1990 में जो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्र होंगे, उन्हें बखूबी याद होगा उस रोज का मंजर। घोड़ों की टापों के नीचे छात्र चीख रहे थे। उन पर लाठियां बरस रही थीं। आधे घंटे तक पुलिस ने बर्बरता की हदें पार कर दीं। छात्र संघ भवन से लेकर यूनिवर्सिटी रोड तक घोड़े दौड़ा दौड़ाकर छात्रों की पिटाई की।
पुलिस यहीं नहीं रुकी। अगला नंबर था छात्रावासों का। सभी छात्रावासों में पुलिस ने कमरे में घुस घुसकर लाठियां बरसाईं। कमरे के भीतर थर-थर कांपते छात्र। बाहर दरवाजा तोड़ने की धमकी देती पुलिस। दरवाजा खोला गया या तोड़ा गया, नतीजे में कोई फर्क नहीं आया। कई छात्रों की इतनी पिटाई हुई कि वो कई दिनों तक कमरे से निकल ही नहीं पाए। छात्रों को हॉस्टल छोड़ने का फरमान सुना दिया गया था। हफ्ते भर तक पुलिस का ये तांडव चलता रहा। पुलिस हॉस्टल पर कभी भी धावा बोल देती और भीतर मौजूद छात्रों की पिटाई हो जाती।
एक दिन मैं हिंदू हॉस्टल में अपने एक दोस्त के साथ फंस गया था। हल्ला हुआ कि पुलिस आ गई। छात्र भाग निकले, हम लोगों से देर हो गई। अब क्या करें…। कमरा भीतर से बंद करते तो तुड़ाई निश्चित थे। दोस्त ने कहा कि चलो बाथरूम में चलते हैं, मैंने कहां वहां मिले तो और कूटे जाएंगे। उन दिनों हॉस्टल में कमरे के दो दरवाजे होते थे। दोनों में एक-एक गोलाकार कुंडी लगी होती थी। दोनों गोलों को मिलाकर ताला मारा जाता था। कारीगरी से ताला भीतर से ऐसे भी बंद किया जा सकता था कि लगे कि ताला बाहर से बंद है। ये तकनीक वो छात्र अपनाते थे, जो कमरे में बैठकर पढ़ना चाहते थे और चाहते ये भी थे कि कोई उनको डिस्टर्ब ना करे।
तालाबंदी की यही तकनीक हम लोगों ने अपनाई। पुलिस के बूटों की आवाज आने लगी थी। हम लोगों ने कमरे का पंखा बंद कर दिया था। दोनों दोस्त सांस बांधे दरवाजे के इधर-उधर खड़े थे। पुलिस वाले आए, दरवाजे पर डंडे फटकारे, गालियां धुआंधार। दरवाजे के गैप से आंखें लगाकर तो कभी डंडे डालकर हिलाकर तस्दीक कर रहे थे। एक कह रहा था-अरे भीतर हैं। दूसरा गाली दे रहा था। हम लोगों की जान हलक में थी, दीवार से चिपटे खड़े थे। एक ने कहा-दरवाजा तोड़ दो, पता चल जाएगा कि कोई भीतर है या नहीं। अब तो मौत साक्षात दिखाई दे रही थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पुलिस वाले चले गए।
उस वक्त कर्नलगंज थाने के थानेदार आरपी सिंह थे (नाम शायद मैं भूल रहा हूं, कोई साथी करेक्ट करवा दें तो मेहरबानी होगी)। हट्टे-कट्ठे। 6 फीट से ज्यादा ऊंचा कद। गजब का आतंक था। उस वक्त आलम ये था कि चार छात्र एक साथ सड़क पर दिखाई नहीं देते थे। नौजवानों पर अघोषित सा कर्फ्यू था। ऐसे में मेरे दो दोस्तों को थानेदार ने यूनिवर्सिटी रोड पर चाय की दुकान से उठा लिया। गाड़ी में बिठाया। पिटाई नहीं की, बस ये कह रहा था-जब मैंने मना किया था कि घर से बाहर ना निकलना तो चाय पीने क्यों निकल गए..? अब पुलिसवालों के बीच घिरे बीए पार्ट-3 के छात्र बेचारे क्या कहते। शाम हो गई, प्रयाग संगीत समिति में कोई कार्यक्रम था, दरोगा ने पूछा-साहब इनका क्या करना है, थानेदार ने कहा-रात होने दो, इनका एनकाउंटर कर देंगे। हालांकि ये बात थानेदार ने मजाक में कही थी, लेकिन दोनों दोस्तों की हालत खराब हो गई। थानेदार बोला- जाओ, घर जाओ। दोनों को डर कि कहीं पीछे से गोली ना चला दे। आखिरकार थानेदार को दया आ गई, साथी पुलिस वालों से बोला-इन दोनों को कटरा चौराहे पर छोड़ आओ।
2003 में विभूति नारायण राय मेरठ में आईजी बनकर आए थे। तब मैं दैनिक जागरण का सिटी चीफ था। मैंने वीएन राय का इंटरव्यू किया था। पूछा था-क्या छात्रों पर बर्बरता का आपको कोई पछतावा नहीं था। वे बोले-‘नहीं, पछतावा कैसा। आदेश था आंदोलन दबाने का, अगर हमने सख्ती न बरती होती तो इलाहाबाद जल उठता। हमें इतनी दहशत भर देनी थी कि आंदोलन उभर न पाए।’ उन्हीं से बातचीत में पता चला कि पुलिस वालों को ऊपर से आदेश कई तरह से मिलते हैं। कई बार सरकार कह देती है कि उसे नतीजा क्या चाहिए। पुलिस को खुली छूट रहती है कि नतीजा यही देना है, रास्ता चाहे जो अपनाना पड़े। फिर पुलिस टारगेट देखती है, अपनी बर्बरता नहीं।
पिछले दिनों दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हुए लाठीचार्ज के वीडियो सोशल मीडिया से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया में खूब वायरल हो रहे हैं। खूब पक्षकारी हो रही है। दोनों तरफ से तलवारें खिंची हैं। पिटने वाले छात्रों से हमदर्दी को वितान दिया जा रहा है तो कहीं पुलिस की लाठी को सही ठहराया जा रहा है। 1990 में जब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्रों पर करीब पखवाड़े भर भयानक जुल्म हुए थे, तब कोई उनकी तरफ से नहीं आया था। हमदर्दी के बोल सुनने को नहीं मिले थे। तब बस दो पक्ष थे। आरक्षण विरोधी और आरक्षण समर्थक। आरक्षण समर्थक घरों में बैठे थे, आरक्षण विरोधी सड़क पर थे और पुलिस लाठियों के जोर पर उन्हें वापस घरों में कैद करने पर आमादा। आज बरबस तीन दशक पुराना वो मंजर आंखों के सामने नाच उठा।
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