बिहार कब तक रहेगा लिट्टी-चोखा के आसरे ?
– नवल किशोर कुमार
सियासत भी बहुत कमाल की चीज है। इतनी कि बड़े-बड़े सूरमा तक इसकी थाह नहीं लगा सकते। क्या किसी ने सोचा होगा कि लिट्टी-चोखा के सहारे भी एक बड़े प्रदेश में होने वाले चुनाव की राजनीति की शुरूआत हो सकती है। लेकिन यही तो राजनीति है। इसमें हर किए का एक मतलब होता है। बेमतलब कुछ भी नहीं होता। इसलिए नरेंद्र मोदी द्वारा लिट्टी-चोखा खाने का खास मतलब है और इस मतलब से वे भी बेमतलब नहीं हैं जो बिहार में राजनीति करते हैं।
कहने का मतलब है कि लिट्टी-चोखा से शुरू हुई इस राजनीतिक मुहिम में खास संदेश निहितार्थ हैं। एक समय था जब नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी को पटना में भोज का आमंत्रण देकर आगे से भोजन की थाली छीन ली थी। अपने उस किए की सजा नरेंद्र मोदी नीतीश कुमार को कई बार दे चुके हैं। उनके सहयोगी अमित शाह ने तो उन्हें अपने घर के आगे फरियादी की तरह इंतजार करने को बेबस भी किया।
खैर, पहले कुछ चर्चा लिट्टी-चोखा की हो जाय। यह बिहार का खास व्यंजन है। खासकर मगध, अंग और शाहाबाद के इलाके का। मैथिल क्षेत्र में लिट्टी-चोखा को सम्मान हासिल नहीं है। वहां के अपने व्यंजन हैं। लोग चूड़ा-दही को बेहतर समझते हैं। माफ करिए चूड़ा-दही नहीं दही-चूड़ा। दरअसल कोई समाज या कोई प्रांत या फिर कोई देश अमीर है या गरीब, इसका जवाब व्यंजन ही देते हैं।
अब यह तो नहीं हो सकता है कि आप नून-भात खाइए और लखटकिया बात करें। प्राय: प्रति वर्ष बाढ़ के संकट के बावजूद मैथिल में समृद्धि अधिक है। इसलिए वहां के लोगों के व्यंजन में दही-चूड़ा है। दही पौष्टिक खाद्य पदार्थ है। इसके विपरीत लिट्टी-चोखा?
लिट्टी-चोखा गरीबों का व्यंजन है। पलायन करने वालों का एक तरह से रूखा-सूखा आहार है। आज भी जब बिहार से मजदूर काम करने दूसरे प्रदेशों में जाते हैं तो रास्ते में उनके आहार के लिए उन्हें लिट्टी-चोखा ही मिलता है। इसकी वजह यह कि लिट्टी को बड़े आराम से दो-चार दिनों तक खाया जा सकता है। यह आज की बात नहीं है। पहले भी ऐसा ही होता था।
एक घटना मेरे पिता जगलाल राय से जुड़ी है। उन्होंने कई बार इसका जिक्र मुझसे किया है। उनके मुताबिक, वे तब पटना में एक सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम औद्योगिक विकास निगम में चपरासी थे। जिस जगह उनका दफ्तर था, आज वहां प्रकाश झा द्वारा बनाया गया फाइव स्टार मॉल है। यह जमीन प्रकाश झा को कैसे मिली, इसकी भी अलग कहानी है। इस पर चर्चा फिर कभी।
पिताजी बताते हैं कि एक बार बिहार से फर्निचर लेकर उन्हें दिल्ली भेजा गया। एक ट्रक पर बैठकर वे साठ के दशक में दिल्ली आए। रास्ते में जो खाने को मिला सो मिला ही, मुख्य आहार लिट्टी-चोखा। दिल्ली में कनॉट प्लेस के पास रीगल सिनेमा हॉल के नजदीक दो रातें उन्होंने गुजारी।
बहरहाल, लिट्टी-चोखा बिहार की अर्थव्यवस्था का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह बहुत अच्छा ही है कि यह राजनीति में चर्चा का विषय बना है। कुछ तो उम्मीद बनती ही है कि बिहार को लिट्टी-चोखा से मुक्ति मिले। गरीबी-गुरबत और पलायन से मुक्ति मिले। सभी राजनीतिक दलों को इस पर ईमानदारी से विचार करना ही चाहिए कि आखिर कबतक बिहार लिट्टी-चोखा के आसरे रहेगा। खाने दिजीए बिहार को भी पुआ-पकवान, बिरयानी, मिठाई, डोमिनोज के पिज्जे और बर्गर।
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