पिता की लालू की विरासत नहीं संभाल पा रहे तेजस्वी !
पिता की विरासत नहीं संभाल पा रहे राजद नेता तेजस्वी !
कैसे आएगी ? गोवार सरकार, अगली बार
बीरेंद्र यादव, पटना।
बिहार विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की पहचान अभी लालू यादव के बेटे से आगे नहीं बढ़ पायी है। वह इससे आगे जाना भी नहीं चाहते हैं। लालू यादव के पुत्र होने का अपना समाजशास्त्र है, अपना फायदा है। अपनी पहचान गढ़ने के लिए तेजस्वी को दिन-रात मेहनत करनी होगी। सुरक्षा घेरे से बाहर निकलकर आम लोगों से सीधा संपर्क करना होगा। लेकिन अनुभव बताता है कि जनसंवाद की हर कोशिश में स्वास्थ्य उनका साथ छोड़ देता है। अब तो हालत यह हो गयी है कि जनता से सीधा संवाद के बजाये ‘ट्विटर टॉक’ करते हैं। आमने-सामने के सीधा संवाद का सबसे बड़ा माध्यम खटिया और चौकी ही रहा है। तेजस्वी का जनता के साथ खटिया और चौकी का संबंध टूट गया है। यह संवादहीनता किसी भी पार्टी या नेता के लिए खतरनाक हो सकता है। 15 वर्षों तक सत्ता में होने का फायदा ले चुकी यादव जाति को अब चिंता सताने लगी है कि कैसी आयेगी अगली बार, यादव सरकार।
बिहार के राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि तेजस्वी यादव ही नीतीश कुमार के विकल्प हो सकते हैं। यह राजनीति की स्वाभाविक प्रक्रिया है। उपमुख्यमंत्री के रूप में तेजस्वी यादव की योग्यता को लेकर कभी मंथन नहीं हुआ था। लालू पुत्र की छवि से बाहर नहीं निकल पाये थे। लेकिन नेता प्रतिपक्ष के रूप में विधान सभा में उनके पहले भाषण की खूब तारीफ हुई थी। उनकी अभिव्यक्ति, भाषा और प्रवाह में एक संभावना लोगों को दिखने लगी थी। लेकिन इस संभावना को यथार्थ में बदलने की कोशिश तेजस्वी की ओर से नहीं हुई। उन्होंने जनता के साथ सीधा संबंध बनाने की कोशिश कभी नहीं की। जनता के साथ जुड़ने की उनकी कोशिश अभिजात्य संस्कृति की भेंट चढ़ गयी। उनकी सभाओं के रास्ते में महंगी गाडि़यां का काफिला दिखने लगा। उनसे मिलने वालों में आम लोग नहीं थे। उन तक उन्हीं लोगों की पहुंच थी, जो ‘मालदार’ थे, जिनका जूता और कपड़ा चमक रहा था। जूता और कपड़ों की चमक में कार्यकर्ताओं के चेहरे की चमक गुम हो गयी। कार्यकर्ता तेजस्वी से मिलते नहीं थे, दर्शन करते थे। तेजस्वी मिलनसार बनने के बजाये दर्शनीय बन गये।
लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद तेजस्वी बिहार के बजाये ट्विटर की राजनीति करने में जुट गये। इसमें लालू यादव का ट्विटर हैंडल उनका पूरा सपोर्ट कर रहा है। अब पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी भी ट्विटर से जनता से संवाद कर रही हैं। यानी राजद के नेताओं का जनता से सीधा संवाद से भरोसा उठ गया है। इसलिए तकनीकी का सहारा ले रहे हैं। यह स्वाभाविक भी है। जब कार्यकर्ता बहड़ जाएं तो तकनीकी का ही सहारा लेना पड़ता है। यह किसी एक पार्टी की ट्रेजडी नहीं है। अब कार्यकर्ता किसी पार्टी के पास नहीं हैं। अब पार्टियों के प्रचार वाहन रिकार्डेड नाराओं के भरोसे चल रहे हैं। गाडि़यों में कार्यकर्ता नहीं होते हैं, बल्कि माईक आपरेटर होते हैं। अन्य पार्टियों के नेता कार्यकर्ताओं के साथ संवाद का नेटवर्क बनाकर रखते हैं, लेकिन राजद के नेता जनता के साथ संवाद नहीं करने का नेटवर्क बनाकर रखते हैं। इसका खामियाजा तेजस्वी यादव को ही भुगतना पड़ेगा।
हमने शुरू में कहा था कि राजनीतिक समीक्षक तेजस्वी यादव को ही नीतीश कुमार का विकल्प मानते हैं। एक बार विधान सभा स्थित मुख्यमंत्री के चैंबर में ही एक पत्रकार ने नीतीश कुमार से कहा कि आपने तेजस्वी को ‘बउआ से नेता’ बना दिया। दरअसल नेता प्रतिपक्ष के रूप में शुरुआती दिनों में तेजस्वी यादव ने सरकार के खिलाफ काफी आक्रमक तेवर अपनाया था। लग रहा था कि सरकार के खिलाफ रणनीति बनाकर संगठित आंदोलन करेंगे। लेकिन समय के साथ तेवर ढीला पड़ता गया। सरकार के खिलाफ आंदोलन भी निष्प्राण होता गया। इधर गठबंधन की राजनीति में भी उनकी स्वीकार्यता पर सवाल उठाये जाने लगे। उनकी क्षमता पर सवाल उठाये जाने लगे। एक नेता के उभार के बीच उनकी स्वीकार्यता और क्षमता पर सवाल उठाया जाने लगे तो समझ लेना चाहिए कि अपनी कार्य शैली, विचार शैली और व्यवहार शैली में बदलाव की आवश्यकता है। तेजस्वी यादव इसी दौर में पहुंच गये हैं। उन्हें जनता और वोटरों के साथ सीधा संवाद कायम करना होगा। खटिया और चौकी का संबंध फिर से जीवंत करना होगा। सर्किट हाउस में दर्शन देने की प्रवृत्ति छोड़नी होगी। पार्टी के नेता अब तेजस्वी की सभा लेने से भी भागने लगे हैं। लोग उन्हें अपने सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में बुलाने से परहेज करने लगे हैं। इसकी वजह है कि तेजस्वी तय कार्यक्रम कब स्थगित कर दें, कोई तय नहीं। यही कारण है कि अन्य प्रमुख पार्टियां संगठन के स्तर पर जमीनी काम कर रही हैं और राजद नेता के पास से जनता के सरोकार के लिए समय नहीं है। तेजस्वी यादव अब पटना बिहार प्रवास पर आते हैं।
तेजस्वी का सौभाग्य है कि लालू यादव के समर्थक कार्यकर्ता उनके साथ हैं। उन पर भरोसा करते हैं। पार्टी संगठन को लगता है कि राजद का भविष्य तेजस्वी यादव को हाथों में सुरक्षित है। इस भरोसे को तेजस्वी अपनी कार्यशैली, विचारशैली और व्यवहारशैली से तोड़ रहे हैं। यह साल विधान सभा चुनाव का है। चुनाव के साथ राजद का भविष्य जुड़ा हुआ है। तेजस्वी का राजनीतिक भविष्य जुड़ा हुआ है। लेकिन राजनीतिक भविष्य की मजबूती की चिंता तेजस्वी के चेहरे पर दिखती नहीं है। बिहार का राजनीतिक हालात देखकर लगता है कि राजद कार्यकर्ता तेजस्वी को नेता मानकर उन्हें सत्ता और सम्मान देना चाहते हैं और तेजस्वी उससे दूर भाग रहे हैं। तेजस्वी को इसमें रुचि नहीं है। चुनाव के साल में तेजस्वी यादव जनता के सरोकार को लेकर संघर्ष करेंगे, जनहित के मुद्दों को अपने राजनीतिक भविष्य से जोड़ेंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। अभी भी राजद कार्यकर्ताओं को तेजस्वी पर भरोसा है। अगर तेजस्वी उस भरोसा और विश्वास को कायम नहीं रख सके, जनता से नहीं जुड़ सके तो वोटर विकल्प चुन ही सकता है। बिहार में वोटरों के लिए न पार्टी की कमी है और न नेताओं का अभाव है। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में नेता की ताकत कार्यकर्ता होता है। कोई भी नेता कार्यकर्ताओं से बनता है। कार्यकर्ताओं की अनदेखी, उपेक्षा और अपमान किसी भी नेता के लिए फायदेमंद नहीं हुआ है। इसलिए पार्टी संगठन और कार्यकर्ताओं का
सम्मान के लिए तेजस्वी को नये सिरे से मंथन करना चाहिए। इसी में तेजस्वी का राजनीतिक भविष्य है और राजद का भी।
—– तेजस्वी के यशस्वी बनने के दस सूत्र —–
1. दस नंबर आवास से बाहर निकलें।
2. दिल्ली परिक्रमा के बजाये गांवों में डेरा डालें।
3. महंगी गाडि़यों के काफिले से निजात पायें।
4. बड़ी सभाओं से ज्यादा छोटी सभाओं पर फोकस करें।
5. संगठन और कार्यकर्ताओं से खुद को जोड़े।
6. लालू यादव राज में गैरसवर्णों के सशक्तीकरण को मुद्दा बनायें।
7. फोन खुद रिसिव करें। फोन ब्रेकर टीम पर अंकुश लगायें।
8. सहयोगी पार्टियों को सम्मान दें, लेकिन उनकी ब्लैकमेलिंग से बचें।
9. संगठन से जुड़े कार्यकर्ताओं से रोज बात करें और अपडेट लेते रहें।
10. विधान सभा क्षेत्र के आधार पर तैयारी का विश्लेषण करें।
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