इसलिए थम गया भाजपा की ओर यादवों का पलायन
वीरेंद्र यादव, पटना।
बिहार की राजनीति के संदर्भ में भाजपा को एक बड़ा धक्का लगा है। जब नीतीश कुमार राजद के साथ थे तो यादवों का एक बड़ा खेमा भाजपा की ओर पलायन कर रहा था। उसे लग रहा था कि लालू यादव व नीतीश कुमार के महागठबंधन में यादव के मुख्यमंत्री बनने की कोई संभावना नहीं है। यादवों को लग रहा था कि भाजपा में यादव मुख्यमंत्री बन सकता है। भूपेंद्र यादव, नित्यानंद राय, नंद किशोर यादव जैसे नेताओं का भाजपा में कद बढ़ रहा था। इन नेताओं की छवि गढ़ने का प्रयास भी पार्टी की ओर से किया गया। इस ‘इमेज पोलिटिक्स’ में लालू यादव से नाराज या असंतुष्ट नेता और कार्यकर्ता भाजपा की ओर पलायन कर रहे थे। भाजपा भी दावा कर रही थी कि यादव का 20 से 30 फीसदी वोट उसके उम्मीदवारों को मिल रहा है। जहां भाजपा के इकलौते यादव उम्मीदवार थे, वहां यादवों ने 80 फीसदी तक वोट भाजपा को दिया, लेकिन जिन सीटों पर महागठबंधन और भाजपा दोनों के यादव उम्मीदवार थे, उसमें 20 से 30 फीसदी वोट जरूर भाजपा को मिला होगा। लेकिन जिन सीटों पर भाजपा गठबंधन की ओर यादव उम्मीदवार नहीं थे, वहां सौ फीसदी वोट लालू यादव को गठबंधन को मिला।
2015 के विधान सभा चुनाव में यादव मुख्यमंत्री की संभावना की आड़ में लालू यादव के आधार वोट में सेंधमारी करने में भाजपा कुछ हद तक सफल रही थी। लेकिन नीतीश कुमार के सहयोगी बदलने के बाद यादव वोटरों का मन बदला। उन्हें लगा कि भाजपा में यादव मुख्यमंत्री की संभावना समाप्त हो गयी। इस कारण यादवों का जो वोटर भाजपा की ओर पलायन कर रहा था, वह रुक गया। उसे लगा कि भाजपा में बेहतर भविष्य की संभावना समाप्त हो गयी है। उसे लगने लगा कि सत्ता की संभावना राजद के साथ ही है। इसलिए भाजपा को विकल्प के रूप में देख रहे यादव वोटर का मन ठहर गया और आकर तेजस्वी यादव में अटक गया।
जिन नेताओं को भाजपा ने यादव नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया, वह भी न भाजपा की उम्मीदों पर खरे उतरे और न यादवों का भरोसा हासिल कर सके। वे भी ‘सवर्णों की गुलामी’ से आगे नहीं सोच पाये। भाजपा में यादव के नेता सार्वजनिक मंच से कभी यादवों के सरोकार की पैरवी नहीं कर पाये। यादव वोटों पर दावेदारी के लिए कभी ताल ठोक कर खड़ा नहीं हो पाये।
यादव का अपना ‘जाति चरित्र’ है। वह ‘मुंह चोर’ नेताओं को स्वीकार नहीं करता है। अभिजात्य कल्चर भी उसे पंसद नहीं है। यही कारण रहा कि भाजपा के नेता यादवों को रास नहीं आये। भाजपा ने पार्टी में यादव नेताओं का कद बढ़ाने का प्रयास किया, लेकिन अपनी ही जातीय जमीन पर नकार दिये गये। भाजपा ने नरेंद्र मोदी के उभार के दौर में यादवों को जोड़ने का काफी प्रयास किया। हिंदुत्व के नाम पर ‘भाइचारा’ का प्रयास किया, लेकिन भाजपा भाइचारे को बूथ तक पहुंचाने में विफल रही। 2015 में पराजय के बाद भाजपा को भी यादवों से भरोसा उठ गया और भाजपा ने यादव को जोड़ने के बजाये नीतीश की ‘डोली’ में कंधा लगाना ज्यादा बेहतर समझा। अब गृहमंत्री अमित शाह ने अपने कार्यकर्ताओं को कह दिया है कि दूल्हा बनने सपना नहीं पालें। सत्ता बेगारी से मिलती है तो बनिहारी करने की क्या जरूरत है।
यादव वोटरों की अपनी चिंता है। उन्हें लगा कि जाति भी बेचें और भात भी न खायें। इससे बढि़या है अपने घर से संतोष से रहें। यही कारण है कि कभी यादव वोटों के बिखराव की आशंका देख रहे राजनीतिक समीक्षकों को लगने लगा है कि यादव वोटर फिर एकजुट हो गया है। भाजपा की ओर उसका पलायन ठहर गया है। इसका सीधा लाभ तेजस्वी यादव और उसके गठबंधन को मिलेगा। https://www.facebook.com/kumarbypatna
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