बिहार की हिडेन हिस्ट्री : संघमित्ता-संघमित्रा
संघमित्ता-संघमित्रा
पुष्यमित्र, फेसबुक से साभार
श्रीलंका में दिसंबर महीने के पूर्णिमा की तिथि को एक पर्व मनाया जाता है, उदुवापा पोया. पोया का आशय संभवतः पूर्णिमा से ही है. क्योंकि वहां हर महीने की पूर्णिमा तिथि को कोई न कोई पोया पर्व मनाया जाता है. हर पोया पर्व बौद्ध धर्म से संबंधित है. उदुवापा पोया पर्व जो साल का आखिरी पर्व है, उसे एक और नाम से भी पुकारा जाता है, संघमित्ता डे. संघमित्ता डे यानी संघमित्ता दिवस. संघमित्ता मने संघमित्रा, दुनिया के सर्वकालिक महान राजा में से एक अशोक की पुत्री संघमित्रा, जो बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए ईसा पूर्व 249 में श्रीलंका गयी थी. वे वहां अपने साथ बोधि वृक्ष की टहनियां भी लेकर गयी थीं. संघमित्रा ने ही श्रीलंका में महिलाओं के बौद्ध भिक्खु संघ की स्थापना की, जो बाद में एशिया के दूसरे कई मुल्कों में भिक्खुनी संघों के निर्माण का आधार बनी. इसी वजह से दिसंबर मास में संघमित्ता और बोधि वृक्ष की टहनियों के श्रीलंका आने की याद में हर साल उदुवापा पोया या संघमित्ता डे मनाया जाता है. श्रीलंका के अनुराधापुरा में जहां वे गयी थीं और उनके द्वारा स्थापित स्त्रियों के भिक्खुनी संघ के अवशेष और बोधि वृक्ष मौजूद है, भव्य आयोजन होता है और देश भर के लोग वहां पहुंचते हैं.
ईसा पूर्व 249 में ही संघमित्रा के बड़े भाई महेंद्र भी उनसे पहले श्रीलंका गये थे. महेंद्र के आगमन की याद में भी श्रीलंका में एक और पोया पर्व मनाया जाता है. श्रीलंका में लोग महेंद्र को महिंद कह कर पुकारते हैं. वहां के लोग मानते हैं कि महिंद और संघमित्ता दोनों भाई बहन ऐसे राजदूत थे, जिनके आने से श्रीलंका की पूरी सभ्यता बदल गयी. हमारे सोचने-समझने, जीने, खाने-पीने, हंसने-रोने, कला-संस्कृति, समाज और जीवन का हर तरीका बदल गया. सम्राट अशोक की इन दोनों संतानों ने श्रीलंका के जीवन को जिस तरह प्रभावित किया है, शायद ही कोई शासक दुनिया के किसी हिस्से में इतना बदलाव ला पाया होगा. इन दोनों के जरिये वहां सिर्फ गौतम बुद्ध के उपदेश ही नहीं पहुंचे, भारत की, बिहार की और मगध की संस्कृति भी पहुंची. मगर आज बिहार में हम महेंद्र और संघमित्रा के जीवन, उनके अवदान के बारे में बहुत कम जानते हैं.
कहते हैं पटना का मशहूर मोहल्ला महेंद्रू जो प्रवासी छात्रों के गढ़ के रुप में जाना जाता है. जहां सीलन भरे छोटे कमरों में रहते हुए और दूषित पेयजल पीते हुए लाखों छात्र इंजीनियरिंग-मेडिकल से लेकर एसएससी और रेलवे गार्ड तक की नौकरी की तैयारी करते हैं, उसी महेंद्र के नाम पर बसा है. संघमित्रा एक्सप्रेस के नाम से एक सुपर फास्ट ट्रेन हर रोज पटना से चेन्नई होते हुए बेंगलुरू जाती है.
एक राजकुमारी का 32 साल की उम्र में अपने घर से कई हजार किमी दूर एक अनजाने मुल्क में जाना और वहीं जीवन गुजार देना. वहां की स्त्रियों के बीच बौद्ध धर्म के मानवीय विचारों के प्रचार प्रसार में जीवन खपा देना कोई साधारण बात नहीं. संघमित्रा अशोक की पहली पत्नी देवी की पुत्री थी, ईसा पूर्व 281 में उनका जन्म हुआ था. देवी जो पहले से बौद्ध थी, मगध के राजमहल में नहीं रह कर उज्जयनी में रहा करती थी. महेंद्र देवी का ज्येष्ठ पुत्र था. 14 साल की उम्र में संघमित्रा का विवाह अशोक के एक नजदीकी रिश्तेदार अग्रिब्राह्मी से हुआ. अग्रिब्राह्मी भी बौद्ध उपासक अरहंत थे. दोनों के पुत्र सामनेर सुमन ने महज सात वर्ष की उम्र में अरहंत का मार्ग अपना लिया. यह घटना संघमित्रा के जीवन को बदलने वाली साबित हुई, वह भी बौद्ध भिक्खुनी अरहंत थेरी बन गयी और पाटलीपुत्र आकर रहने लगी.
इसी दरम्यान ईसा पूर्व 250 में पाटलीपुत्र में मोगलीपुत्र तिस्स के नेतृत्व में तृतीय बौद्ध संगिती का आयोजन हुआ और उस संगिती में तय हुआ कि बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार विश्व के दूसरे देशों में भी किया जाना चाहिए. इसी मकसद से सम्राट अशोक ने नौ अलग-अलग दिशाओं में नौ दूत मंडलियों को भेजा.
अशोक के ज्येष्ठ पुत्र महेंद्र अपने साथियों के साथ दक्षिण दिशा में श्रीलंका की तरफ गये, जहां उस वक्त अनुराधापुरा में अशोक के मित्र देवनामपिय तिस्स राजा थे. श्रीलंका के इतिहास को सुरक्षित दर्ज करने वाली प्राचीन पुस्तक दीपवंस के मुताबिक वहां महेंद्र के जाने से पहले से बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग थे, उस ग्रंथ के मुताबिक स्वयं गौतम बुद्ध ने भी श्रीलंका की यात्रा की थी. मगर उस वक्त उस इलाके में बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा था. इसलिए महेंद्र की टीम का श्रीलंका जाना अनुराधापुरा के बौद्ध शासक देवनामपिय तिस्स के लिए उत्साह का विषय था. उन्होंने महेंद्र का स्वागत किया और उनकी मदद से वहां बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार फिर से शुरू हुआ. इस बीच ने देवनामपिय तिस्स की पत्नी की छोटी बहन राजकुमारी अनुला ने इच्छा जाहिर की कि भारत से कोई महिला भिक्खुनी भी आये, ताकि यहां थेरियों का भी संघ बन सके. इस पर देवनामपिय तिस्स ने सम्राट अशोक को पत्र लिख कर यह इच्छा जाहिर की. साथ ही यह मांग भी की कि आगंतुक महिला थेरी अपने साथ उस बोधि वृक्ष की टहनियां भी लेकर आयें जिसके नीचे बैठने से तथागत को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी.
जब यह पत्र पाटलीपुत्र पहुंचा तो थेरी संघमित्रा ने इस
कार्य के लिए खुद श्रीलंका जाने की इच्छा जाहिर की. वहां उसके भाई महेंद्र तो थे ही, उसके पुत्र सामनेर सुमन भी महेंद्र के साथ गये थे. सम्राट अशोक नहीं चाहते थे कि उनकी पुत्री संघमित्रा श्रीलंका जाये. ध्यान रखना होगा कि यह बात आज से 22-23 सौ साल पहले की थी, तब यात्राएं इतनी सुलभ और सुरक्षित नहीं हुआ करती थी और अनजाने देश में, अनजाने लोगों के बीच, अनजानी भाषा और भोजन संस्कृति के साथ समन्वय बिठाना आसान काम नहीं था. संघमित्रा साधारण भिक्खुनी नहीं थी, वह राजपुत्री थी.
मगर संघमित्रा ने जोर देकर कहा, मेरे भाई महेंद्र वहां हैं ही, वहां बड़ी संख्या में महिलाएं भिक्खुनी संघ में शामिल होना चाहती हैं, ऐसे में मेरा वहां जाना सर्वथा उचित है. आखिरकार अशोक को राजी होना पड़ा. सोने के बर्तन में बोधि वृक्ष लेकर समुद्र के रास्ते संघमित्रा श्रीलंका के लिए निकली. उसके साथ 10 अन्य भिक्खुनियां और मगध सम्राज्य के कई पुरुष थे. सात दिन की यात्रा के बाद श्रीलंका के उत्तरी तट पर जम्बूकोला में वह उतरी. वहां उसके स्वागत के लिए स्वयं देवनामपिय तिस्स उपस्थित हुए. अनुराधापुरा के महामेघवन में बोधि वृक्ष को लगाया गया, जो आज भी वहां स्थित है. कुछ साल पहले जब बोधगया का असली बोधि वृक्ष सूखने की कगार पर पहुंचा तो वहीं से बोधि वृक्ष की टहनियों को लाकर फिर से यहां लगाया गया.
फिर संघमित्रा ने राजकुमारी अनुला को परिब्रज्या दी और इस तरह अनुला श्रीलंका की पहली भिक्खुनी बनी. पहले तो उन्हें और भारत से गयी महिला भिक्खुनियों को उपासिका विहार में रखा गया फिर राजा देवनामपिय तिस्स ने स्त्रियों के संघ के लिए 12 भवनों का निर्माण कराया. खुद संघमित्रा के रहने के लिए अलग से हाथलाखा विहार बनवाया. वे अगले 47 वर्ष तक वहीं रहीं और भिक्खुनी संघ को सेवा देती रहीं. 79 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी.
संघमित्रा द्वारा श्रीलंका में स्थापित भिक्खुनी संघ या भिक्खुनी सासन अगले एक हजार साल से अधिक वक्त तक संचालित होता रहा. 1017 में जाकर जब वहां कुछ राजनीतिक अस्थिरता फैली तो ये संघ गायब हो गये. मगर बाद में उसकी पुनर्स्थापना हुई. श्रीलंका के भिक्खुनी संघ के जरिये ही वर्मा, चीन और थाइलैंड में भिक्खुनी संघों की स्थापना हुई. उसी संघ की भिक्खुनी देवसारा ने सन 429 में चीन जाकर वहां पहले भिक्खुनी संघ की स्थापना की. थेरवाद के महिला भिक्खु संघों की परंपरा का मतलब आज भी संघमित्रा ही माना जाता है. 2002 में थाइलैंड में एक मंदिर में संघमित्रा की प्रतिमा स्थापित की गयी है. भले ही भारत में महिलाओं के बौद्ध धर्म में शामिल होने की परंपरा वैशाली की नृत्यांगना आम्रपाली की वजह से शुरू हुई मगर दुनिया में बौद्ध धर्म में महिलाओं को स्थान दिलाने की परंपरा महान मगध सम्राट अशोक की पुत्री और पाटलीपुत्र की थेरी संघमित्रा उर्फ संघमित्ता के नाम से ही चलती है.
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