डीयू के एक प्रोफेसर का सांसद हो जाना…
Vineet Kumar
राज्यसभा टेलिविजन पर प्रोफेसर मनोज झा की क्लिप देखी. अपने भीतर चुंबकीय क्षमता सहेजकर रखनेवाला सामाजिक विज्ञान का प्रोफेसर जिन्हें कैंपस में जब भी देखा, छात्रों से घिरे- उनके जमघट के बीच देखा. दुनिया अब उन्हें सांसद के तौर पर जानती है. टीवी दर्शक उन्हें आरजेडी प्रवक्ता के तौर पर. लेकिन
संसद में जब उनकी आवाज़ गूंजती है तो पूरे हिन्दुस्तान को एक क्लासरूम में तब्दील कर देती है. तब सहमति- असहमति के के पचड़े में पड़ने से कहीं ज्यादा दिमाग में एक ही बात घूम रही होती है- वो जो कह रहे हैं, हमारे लोकतंत्र की सिलेबस का हिस्सा है और हमारी नागरिकता जिसकी परीक्षा रोज ली जाती है, इसी सिलेबस के दोहराए जाने पर बची रह सकती है.
व्यक्तिगत तौर पर मैं उन्हें जब भी सुनता रहा हूं, पार्टी की पहचान और कई बार तो सांसद की पहचान को भी माइनस करके एक प्रोफेसर की देश और दुनिया की कैसी समझ होनी चाहिए, उसी निकष पर देखते-परखते और भीतर ही भीतर शुक्रिया अदा करते हुए..
ऐसे दौर में जबकि डीयू के भूतपूर्व वीसी सहित उनके चाटुकार और दर्जनों प्रोफेसर रिटायरमेंट के बाद या तो कॉर्पोरेट की गोद में जा गिरे हों या फिर अतीत में कॉमरेड का कोट धारण करके सत्ता के कल-पुर्जे बन जाने की आदत पाल रक्खी हो और अब झंडेवालान और दीनदयाल उपाध्याय मार्ग की तरफ मुंह फाड़कर खड़े हों कि कहीं किसी समिति, संस्थान का टुकड़ा मिल जाय कि बुढ़ापा सत्ता की ताकत के साथ कटे, मनोज झा के भीतर जुझारू और विजनरी प्रोफेसर पहले की तरह जस-का तस जिंदा है. आवाज़ मे समझौते की हल्की सी भी परत चढ़ने नहीं पायी है.
आज संसद में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के तकरीबन पांच हजार एडहॉक शिक्षकों और विश्वविद्यालय के भविष्य को लेकर चिंता जाहिर करते हुए उपराष्ट्रपति श्री वैंकेया नायडू के सामने आग्रह भरे अंदाज़ में कहा कि सर आप ऐसा न होने दें.
सब जानते हैं कि सांसद मनोज झा सत्ताधारी दल और सरकार को किस तरह कटघरे में खड़ा करते हैं, उनके ही किए वायदे की तरफ बार-बार उन्हें ध्यान दिलाते हैं ? लेकिन
असहमति के दौरान भाषा की तमीज क्या होती है, कहने का अंदाज और सलीका कैसा होता है, ये उन तमाम लोगों को सीखने की जरूरत है.
ये वीडियो उन तमाम रिटायर्ड चाटुकार प्रोफेसरों को देखनी चाहिए जिनके लिए पॉलिटिक्स का मतलब अपना बुढ़ापा सुरक्षित करना रहा है. इस तिकड़म में हजारों शिक्षकों का, उनके सपनों का, सालों की उनकी हाड़-तोड़ मेहनत का बंटाधार हो जाय, इन सबसे उन्हें कोई लेना-देना नहीं.
एक प्रोफेसर कैसे सांसद की कुर्सी पर बैठकर अपनी यूनिवर्सिटी, शिक्षक और छात्र के भविष्य पर चिंतित होता है, ये उन तमाम प्रोफेसरों को शर्मसार होने के लिए काफी है जिसकी चिंता में एक कुर्सी के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी…टिल दि ग्रेवयार्ड जुगाड़ जारी रहता है.
मनोज झा की आवाज़ में देश की, प्रोफेसर की आवाज़ बची रहे इसके लिए जरूरी है लोगों को ये बताते रहना कि प्रोफेसर होने का मतलब क्या होता है !
तस्वीर साभार : The Financial Express
वीडियो लिंक :
दिल्ली विश्वविद्यालय के पाँच हज़ार एडहॉक शिक्षकों की सैलरी रोकने और उन्हें नौकरी से निकालकर गेस्ट किए जाने का मामला आज…
Laxman Yadav यांनी वर पोस्ट केले सोमवार, २ डिसेंबर, २०१९
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