ये एक प्रोफेसर की हिन्दी कक्षा नहीं, अंधेरे के बीच उजाला है
Vineet Kumar
ये जो युवाओं का हुजूम है, ये देश के उन सैंकड़ों अकर्मण्य, अपने पेशे के प्रति बेईमान प्रोफेसरों पर तमाचा है जो क्लास न लेकर भी लाखों में सैलरी उठाते हैं. ऐसे जड़, भीतरघाती, अकर्मण्य प्रोफेसरों से आप दस मिनट बात कर लें तो लगेगा इससे कहीं ज्यादा संवेदनशील देश का एक सामान्य नागरिक है. कुर्सी की ताकत ने इनके भीतर के जीवन रस को निचोड़ लिया है.
युवाओं की इस जमघट के बीच जो शख्स खड़ा है, वो दरअसल दिल्ली के उन तिकड़मी प्रोफेसरों की करतूतों का एक करारा जवाब है जिन्होंने इसे लेकर तमाम तरह के प्रपंच किए और हताशा की उस जमीन पर ला पटकने की कोशिश की जिसके बाद इनके पास पढ़ाने ता पेशा छोड़ देने के अलावा कोई दूसरा विकल्प न था. लेकिन
इंसान के भीतर की जीवटता, कुछ बेहतर करने की ललक और दुनिया बदलने के सपने किसी से कोई छीन नहीं सकता. इसने ऐसा होने भी नहीं दिया.
ये नज़ारा है इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक हिन्दी क्लासरूम का और पढ़ानेवाले शख्स हैं अमितेश.( Amitesh Kumar )
इस क्लासरूम में आने से पहले अमितेश की पहचान नाटक और रंगमंच के एक गंभीर अध्येता और विश्लेषक के रूप में बन चुकी थी. वो देश के कई प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में शिद्दत से लिखते आए हैं. प्रभात खबर के पाठक तो इनके कॉलम से भली-भांति परिचित होंगे. एनडीटीवी के दर्शकों ने इन्हें प्रो. नामवर सिंह से बातचीत करते देखा ही है. आप सब अमितेश को अपने-अपने सिरे से जानते आए हैं. लेकिन
मैंने अमितेश के संघर्ष और मेहनत को न केवल करीब से देखा है बल्कि उसका बड़ा हिस्सा साथ-साथ जिया है. हम दिल्ली के दर्जनों कॉलेजों से साथ-साथ अपमानित होकर, दुत्कारे जाने के बाद बाहर निकले. हमारा कसूर सिर्फ इतना रहा कि बोर्ड में हमारे नाम की कोई पर्ची न होती और हमने अपने भीतर ये भरोसा पाल लिया कि प्रोफेसरी की नौकरी पढ़ने-लिखने और जिंदगी में बेहतर करने से लगती है. मैं आपको इस पेशे की कड़वाहट के भीतर नहीं ले जाना चाहता. ऐसे मौके पर एक खूबसूरत प्रसंग साझा करना चाहता हूं-
अस्थायी शिक्षक के तौर पर अमितेश दिल्ली विश्वविद्यालय के जिस सेंटर में पढ़ाया करते, संयोग से उस वक्त उनके कुछ छात्र मेरी क्लास में टेलिविज़न पढ़ने आया करते. मैं पढ़ा रहे छात्रों से ज्यादा पर्सनल नहीं होता लेकिन कोई क्लास में देर से आए, समय पर परीक्षा फॉर्म न भरे, टेस्ट पेपर न दे तो थोड़ी बात कर लेता हूं. इसी क्रम में उस सेंटर से आए छात्रों से पता चला कि वैसे तो ये मुझसे टेलिविज़न पढ़ते हैं लेकिन इनके असली गुरू/ मेंटॉर हैं अमितेश.
इससे पहले मैंने अमितेश की क्लास का नज़ारा कभी नहीं देखा लेकिन वो छात्र तब इनका नाम लेते वक्त जिस अंदाज में आंखें घुमाते और चेहरे पर भाव उभरते, मुझे इस बात का अंदाजा लगाने में मुश्किल नहीं होती कि इनके प्रति छात्रों के मन में कितना गहरा सम्मान है ?
दूसरा कि अपना पेपर पढ़ाते-पढ़ाते मीडिया का कुछ संदर्भ आ जाता और जिस शिद्दत से मुझसे एक-एक किताब और सामग्री पर चर्चा किया करते, मैं समझ पा रहा हूं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इनकी कक्षा कैसे छात्रों से खचाखच कैसे भरी है ?
आप मुझसे जब पूछते हैं फलां की अभी तक स्थायी नौकरी क्यों नहीं हुई, कहां चूक रह गयी तो उसका जवाब ये तस्वीर है. हिन्दी के अधिकांश प्रोफेसर भयानक कुंठा, असुरक्षा और हीनता की ग्रंथि लिए जीवन जीते हैं. उपरी तौर पर वो भले ही अकड़,अहंकार और ठसक की पैकेज लगें लेकिन उन्होंने ये बात सालती है कि उनकी क्लास में क्यों ठीक-ठाक संख्या में मक्खियां तक नहीं आतीं और आज के ये लौंड़े जब क्लास लेते हैं तो इनकी कोर्स के अलावा बाकी के क्लास और कोर्स के लोग भी क्लास करने के लिए मार करते हैं.
ये तस्वीर आपको हैरानी करती होगी लेकिन हम जैसे लोग इसी भरोसे बाकी अपनी सारी तकलीफ, सारा दर्द झेल जाते हैं कि हमारे भीतर अभी वो भरोसा जिंदा है कि जिन्हें बेहतर कल और पढ़ने-लिखने की दुनिया पर यकीं होगा, वो इंटरशिप, प्रतियोगिता परीक्षा, अतिरिक्त कौशल के नाम पर क्लास छोड़कर अपना दोहन नहीं होने देगा. वो क्लासरूम को अपनी पहली प्राथमिकता मानेगा.
ये तस्वीर एक साथ आपके भीतर बनी धारणाओं को तोड़ने का काम करती है. मसलन- देश के प्रोफेसर पढ़ाते नहीं हैं. सरकारी नौकरी मिल जाने के बाद लोग मेहनत नहीं करते. बच्चे क्लास करना पसंद ही नहीं करते, दिन-रात मोबाईल से चिपके रहते हैं और आज के जमाने में कौन हिन्दी पढ़ना चाहता है ?
मैं चाहूंगा कि इस तस्वीर की आप कई कॉपी निकालकर रख लें. एक तो उन प्रोफेसरों को पकड़ाएं जिनके भीतर युवा अध्यापकों को लेकर असंतोष है, असुरक्षा बोध है और बाकी कॉपी हिन्दी पखवाड़े के दौरान लोगों के बीच ये कहते हुए बांटिए कि हिन्दी भी लोग दम लगाकर पढ़ते हैं, बर्शर्ते की उसे पढ़ानेवाला कोई अमितेश जैसा शिक्षक हो.
पहली तस्वीर साभार ः Shrimant Jainendra
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