सब चाणक्य के पीछे क्यों पड़े हैं ??
पीयूष बबेले
जब-जब राजनीति में नैतिक पतन के प्रसंग उठते हैं तो राजनैतिक पैंतरेबाजी को जायज ठहराने के लिए चाणक्य का उदाहरण देना शुरू कर दिया जाता है. अगर चाणक्य के किरदार को गौर से देखें तो पता चलेगा कि चाणक्य नीति का असली मतलब है राष्ट्रहित में कठोरतम फैसला लेना. एक ऐसा फैसला जिसमें किसी भी सूरत में निजी स्वार्थ शामिल हो ही नहीं सकता. चाणक्य नीति का मतलब है कोरी भावनाओं को ताक पर रखकर विवेक को सर्वोपरि रखना. और सबसे बढ़कर चाणक्यनीति का मतलब है कि किसी महान उद्देश्य के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देना.
चाणक्य के जीवन में जो पहली प्रतिज्ञा आती है वह यह है कि जब महापद्मनंद के दरबार में उनका अपमान होता है तो वह नंद वंश को गद्दी से उतारने का प्रण लेते हैं. इस प्रण में यह शामिल नहीं था कि वह तख्तापलट कर अपने लिए गद्दी चाहते हैं या अपने परिवार के लिए. असल में चाणक्य भोग विलास में डूब चुके अहंकारी राजतंत्र का खात्मा कर जनता के लिए एक बेहतर सरकार बनाने के प्रण से जीवन भर जुड़े रहे और इसमें कामयाब हुए.
उनके जीवन की दूसरी कहानी यह प्रचलित है कि वह इतने ईमानदार थे कि राजतंत्र के दीये की रोशनी तक अपने निजी काम के लिए इस्तेमाल नहीं करते थे. इसके अलावा उनकी तीसरी कहानी वह मशहूर है, जब उनका चेला और भारत का सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गया तो चाणक्य ने उसे वह शादी नहीं करने दी. चाणक्य ने साफ कहा कि राजा की शादी भी राष्ट्र के राजनय उद्देश्यों से परे नहीं हो सकती. चंद्रगुप्त को यह बातें बहुत बुरी लगीं, लेकिन अपने गुरु की बात उन्हें माननी ही पड़ी.
अब जरा गौर से देखकर बताइये कि महाराष्ट्र में पिछले पंद्रह-बीस दिन से जो पूरा राजनैतिक घटनाक्रम चला उसमें ऐसा कौन सा महान उद्देश्य था, जिसकी तुलना चाणक्य के राष्ट्रनिर्माण के महान उद्देश्य से की जा सकती हो. इस राजनैतिक प्रहसन के सारे किरदार बड़ी-बड़ी गाडि़यों में उतरते चढ़ते रहे और देश के सबसे महंगे होटलों में उनकी मंत्रणाएं हुईं. क्या इन लोगों की तुलना उस शिखाधारी कौटिल्य से की जा सकती है, जो एक कुटिया में रहता था और राष्ट्र की संपत्ति को अपने लिए इस्तेमाल नहीं करता था. यही नहीं इस पूरे घमासान के तकरीबन सभी पात्रों पर भ्रष्टाचार और जघन्य अपराधों के आरोप या तो अब तक बने हुए हैं, या येन केन प्रकारेण इन पात्रों ने अपने लिए क्लीनचिट हासिल कर ली है्. तो इन पात्रों की तुलना उस चाणक्य से करना जो नंदवंश के भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा था, क्या न्याय संगत है.
असल में नैतिक पतन के इस दौरान में चाणक्य की मिसाल का भी पतन होता जा रहा है. होना तो यह चाहिए कि इनमें से ज्यादातर पात्रों की तुलना मंथरा, कैकेई, धृतराष्ट्र और शकुनि जैसे पात्रों से होनी चाहिए.
सबसे पहले मंथरा का उदाहरण ही लेते हैं. मंथरा को तुलसीदास जी ने एक ऐसे वकील की तरह पेश किया है जो अपनी दुष्टता और नीचता को धर्मोपदेश और आसन्न भय की चाशनी में लपेट कर पेश करती है. यह मशहूर अर्धाली ‘ कोऊ नृप होय हमें का हानी’ गुसाईं जी ने उसी मंथरा के मुंह से कहलाई है जो अपनी नौकरी और हैसियत बचाने के लिए हर हाल में चाहती थी कि राजा भरत ही बनें. महाराष्ट्र के पूरे घटनाक्रम में आपको वे किरदार मिल जाएंगे जो मुंह से तो खुद को तटस्थ और शुचिता की मूर्ति बता रहे थे, लेकिन असल में पर्दे के पीछे से मंथरा की तरह अपने मन का राजा चाहते थे.
कैकेई का हाल तो और गजब है. उन्होंने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए भगवान राम को निशाना तो बनाया ही साथ ही इस बात तक की फिक्र नहीं की कि उसका हठ उसके पति राजा दशरथ की मृत्यु का कारण बन सकता है. उसने अपने एकांत कोपभवन में रात के समय बरसों पुराने दो वरदान ऐसे इमरजेंसी क्लॉज की तरह निकाले जो अनैतिक और जनहित विरोधी होते हुए भी पूरी तरह कानूनी थे. उसने राजा दशरथ के धर्म का इस्तेमाल उन्हीं की हत्या के लिए कर दिया. यह सही है कि वह बहुत बहादुर और विवेकी थी, लेकिन ऐन मौके पर वह पूरी तरह मोहग्रस्त और कपटी हो गई. कहने वाले कैकेई की इस धूर्तता को चाणक्यनीति कह सकते हैं, लेकिन यह रहेगी लोक का अहित करने वाली धूर्तता ही.
तीसरी उपमा ऊपर धृतराष्ट्र की दी गई थी. तो धृतराष्ट्र महाभारत का एक ऐसा कुंठित किरदार है जो अपनी लिप्सा की पूर्ति के लिए अपने पुत्र की मूर्खता का पूरा इस्तेमाल करता है. वह हर कदम पर दुर्योधन के अभिमान और ज्यादतियों को बढ़ने देता है. यही नहीं वह यह भी सुनिश्चित करता है कि दुर्योधन की हर गलती अंतत: उसकी राज मोहर लगकर वैध बन जाए. विदुर के लाख समझाने के बावजूद वह कौरव पांडवों के बीच राजभवन में ही जुए का खेल होने देता है. बाद की सब बातें लोगों को पता ही हैं. आज के पंडित धृतराष्ट्र की इन अधम चालों को भी चाणक्य नीति कह सकते हैं. लेकिन वे यह जरूर भूल जाएंगे कि चाणक्य की चालों ने देश को बनाया था और धृतराष्ट्र की चालों ने भयानक रक्तपात कराया और अंत में कुरुवंश के विनाश का कारण बनीं.
चौथा पात्र है शकुनि. मुझे लगता है कि वर्तमान राजनैतिक घटनाक्रम की सही तुलना के लिए यही पौराणिक पात्र सबसे उचित है. वह ठंडे खून का दुष्ट आदमी है. वह हमेशा षड़यंत्र रचता है और उसे अमल में लाने के लिए पठ्ठे तैयार करता है. वह कभी कोई भी सीधा काम नहीं करता और जब तक काम में कुटिलता शामिल न हो जाए, उसे लगता ही नहीं कि वह कुछ कर रहा है. उसकी रणनीति बहुत सीधी है. पहले एक छल करो और फिर उसे ढंकने के लिए छलों का पूरा छलावा रच डालो. हमेशा वह बात बोलो जो नहीं करनी है और जो करना है उसकी किसी को भनक न लगने दो.
महाराष्ट्र में ज्यादातर किरदारों ने खुद को शकुनि की भूमिका में रखा. पहले जनता से गठबंधनों के नाम पर वोट मांगे गए, लेकिन सरकार बनाने के लिए निजी हितों को आगे कर लिया गया. इस तरह वोटरों को धोखा दिया गया. उसके बाद अपने हित में अपनी सहयोगी पार्टियों को धोखा दिया गया. यह धोखा यहीं तक नहीं रुका तो एक व्यक्ति ने अपने परिवार को धोखा दे दिया. फिर इस धोखे को आगे बढ़ाते हुए राजभवन को धोखे में रख दिया गया. चरम परिणिति यह हुई की देश की सबसे बड़ी अदालत में उस व्यक्ति ने खुद को हलफनामा देकर पूरी पार्टी ही घोषित कर दिया, जबकि उसके पास कुछ था ही नहीं. और इस व्यक्ति के खोखले दावे पर दूसरी पार्टी ने खुद को प्रदेश की बहुमत की सरकार घोषित कर दिया.
जाहिर है कि झूठ और धोखे के इस चक्रव्यूह का एक द्वार टूट चुका है और बाकी द्वार भी आगे टूटेंगे. लेकिन इस पूरे प्रसंग में लोकतंत्र को जो नुकसान पहुंचना था वह तो पहुंच ही चुका है. यह पूरा काम चाणक्य के उस महान उद्देश्य से ठीक उलट है जिसके लिए चाणक्य ने जीवन होम कर दिया. इसलिए बेहतर होगा कि षड़यंत्रकारियों और बात बहादुरों को चाणक्य के बजाय उन चार किरदारों में से कुछ भी कह लें जिनका ऊपर नाम लिया गया है.
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