एक गुमनाम पागल गणितज्ञ का जन्म

कालूलाल कुलमी
पिछले दो दिनो से सोशल मीडिया में वशिष्ट नारायण सिंह की खबर चल रही थी। देश के महान गणितज्ञ की मृत्यु हो गयी। घुमनामी में मारे गए। किसी को कोई खबर भी नहीं। पहले मैंने कोई विचार नहीं किया। लेकिन जब उनके बारे में पढ़ा तो आंखे खुल गयी। अपने समय का गणितज्ञ, अमेरिका में पढ़ा और नौकरी भी की और गणित के सवाल और आएंस्टियन के सापेक्षता के सिद्धांत पर भी सवाल कर दिया। सच में अकूत प्रतिभा के धनी थे वो। लेकिन उनके साथ ऐसा क्या हुआ कि वे पागल हो गए।और उनका इलाज हुआ भी और नहीं भी। हुआ होता तो वो जरूर कुछ न कुछ नया करते। पागल होकर न मरते। नासा में भी काम किया। फिर भारत लौट आए। क्यों आए इस पर कभी किसी ने कुछ बताया नहीं। सवाल ये है की वो आदमी पागल क्यों हुआ और उसकी परतिभा का दोहन तो दूर उसको पागल करने में समाज ने अपनी खुशी ही देखी। अक्सर भारत में ये होता है अगर आप सफल हो तो सब सही है लेकिन अगर वो नहीं तो आप सबसे बड़े अपराधी। लेकिन ये तो सफल भी थे। सब था फिर भी इनकी पत्नी इनको छोड़ कर चली गयी। शायद जिस समय उनको उसकी सबसे अधिक जरूरत थी। एक इंसान के जीवन में कितना कुछ होता है जो उसको बनाता है। जो उसको और उसके जीवन के आगे के रास्ते को बनाता है। इसमें अक्सर कुछ न कुछ बदलाव होता है। उस बदलाव की कितनी ही परते है।जिसको फ्रायड के लेखन से जान सकते हैं।
हम जिस गाँव शहर में रहते है आपको कोई न कोई पागल मिल ही जाता है।लेकिन हम कभी उसके लिए कुछ नहीं करते। न हम उसको कोई सामाजिक परेशानी मानते हैं। मेरा दावा है कि ये सच है। हम “पागल” कहकर निकल जाते है। उस पर कभी कोई विचार नहीं करते। महाजनी सभ्यता है। इसको किसी से क्या मतलब। असल में हम न तो उसको हल करते हैं न उनको उस निगाह से देखते हैं। जोड़तोड़ और झूठ के कारण परतिभावान लोग इस पर कभी विचार नहीं करते, सच में उनको सोच इतनी बड़ी होती की वो हर तरह क्षुद्रता से आगे सोचते हैं। जिसका परिणाम होता है वो मूर्खो के बीच बर्बाद होते हैं। हिन्दी में निराला, मुक्तिबोध जैसे कितने ही कलाकार है। लंबी लिस्ट है। वैसे भी जब भी कोई अलग सोचता है समाज उसको पागल घोषित कर देता हैं। फिर सभी का जीवन सामान्य हो जाता है। जड़ता जरूरी है, नया विचार कोई अर्थ नहीं रखता है।
जब समाज में मूल्यों का महत्व खत्म हो जाता है तब साधारण लोग पागल ही होते है। चालू लोग उस कुर्सी पर जाकर महान होने का नाटक करते हैं। बिहार के छोटे से गाँव में जन्मे और अमेरिका में पीएचडी किए और पूरी दुनियाँ में अपना नाम कर {1942-2019} पागल हो कर गुमनामी में मरे, ये किसका दुर्भाग्य है। आज के समय में जो अपने को मेनेज नहीं करता, जो अपने को दुनियादार नहीं बनाता उसको कोई भी बाहर कर देता है। आप और हम देखे तो हमको कितनी ही कहानियाँ मिल जाएगी। उनके पीछे क्या है और उसका क्या परिणाम है ये भी आप देख सकते हैं। आदमी का जन्म और उसकी मौत पर ही लोग उसको याद करते हैं लेकिन असली कहानी तो बीच में होती है जिसको वो जीता है। एक सोकोल्ड सामाजिक आदमी और एक अलग सोचवाला आदमी दोनों में अंतर तो होता है। अब सवाल है कि हम किसको चुनते हैं।
लेकिन उन पागलो का क्या होता है। बस वे ऐसे ही मरते है। इस देश का समाज अपने को भगवान में इतना डूबा दिया कि वो नारियल से ही सब काम चलाता है। धर्म और अन्द्विश्वास का तो कुछ बोलना ही नहीं। इंसान भी एक मशीन ही है। उसमे गड़बड़ होती है तो उसको सही किया जाता है। लेकिन भारत में लोग जाति और जड़ता में इस कदर फसे हैं कि आगे कि सोचना उनको अपराध लगता हैं। वशिष्ट नारायण सिंह के जीवन में भी कुछ वही हुआ। उनकी ज़िंदगी उनकी पत्नी के हाथ में थी। और वो उनको पागल समझ कर चली गयी। फिर वो और पागल होते गए। उनको बीमारी तो थी ही लेकिन वो फिर फिर उसको ही खोजते रहे। उनका इलाज़ भी चला। फिर भी चालीस बरस बहुत होते हैं। एक आदमी जिसमें ज्ञान था लेकिन वो चालीस बरस तक गुमनाम रहा। मौत ने उसको फिर जिंदा कर दिया। असल में बिहार हो या फिर कोई हमें परतिभाओ की कोई जरूरत है भी क्यों। हम उनको पसंद नहीं करते, जो नया सोचते हैं। हम उनको पसंद करते हैं जो सब कुछ को सही बोले सवाल न करें। वो स्त्री हो या पुरुष। समाज का सोचने का तरीका वही है। यही करण है कि वशिष्ट नारायण पागल हो कर मरते हैं। मौत भी उनको इतना इंतजार कराती हैं। सीजोफ़ेनिया जैसे बीमारी का इलाज़ है। तमाम मानसिक बीमारियों का इलाज़ है। लेकिन हम पहले माने तो कि ये बीमारी है। समाज अपने को पहले अपनी बीमारी से आज़ाद करे। जिस सामूहिका की बात बार-बार की जाती है वो कितनी शून्य है। न उसकी कोई दिशा है। फिर तो समाधान भी अपने आप निकलेगा। सामाजिक जीवन के दबाव और उसकी जड़ता इंसान के विकास को रोकती है। वो काम भाव हो या फिर बाकी दूसरे भाव। हम किसी पर भी बात करने में शर्म ही आती है। सभी को आप नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। इसी कारण फ्रायड मुझे हर बार याद आता है। उसने कहा कि भीतर ही बाहर को नहीं बनाता बाहर भी भीतर को रचता है। फिर हम एक की बात करते है और दूसरे की नहीं करते। ये भी कोई बात है। मानसिक बीमारी का कुछ यही कारण है। मंदिर में घंटा बजाने से क्या होगा। लेकिन हम वही कर अपने को जीवन की समस्या से मुक्त कर रुग्ण समाज होने से बाहर नहीं आते। अब इन गणितज्ञ पर फिल्म भी बनेगी और जीवनी भी लिखी जाएगी। इनको लेकर दावे भी होंगे। लेकिन इनकी लिखी किताबों को अपने नाम पर छपवा के जो लोग मलाई खा रहे है उनका क्या? उनका कुछ नहीं होगा। वो कुर्सी तोड़ रहे है। और उनको वही करना है। झूठ का कारोबार ही इनके लिए ज्ञान है। ऐसे कितने ही वशिष्ठ है। जिनको कोई नहीं जानता।

कालूलाल कुलमी

न कभी जान पाएगा। ये तो अमेरिका हो आए तो जान भी लिए। वार्न ये भी नहीं जाने जाते। उनकी किताबों को अपने नाम कर मोहन दास की तरह वही होना था। इनको भी उसकी मुकाम पर जाना था और बीमारी और समाज ने मिलकर उनको पूरी तरह से खत्म कर दिया। ये सब किसी भी समाज की सामूहिक चेतना को बताता है। हमे अपना पैमाना बदलना होगा। हम आलोचना एक ही तरह से कब तक। हम किसी इंसान की उस रग को नहीं

छूते जिससे उसकी ज़िंदगी की सही कंपन महसूस कर सके। किवदंती जल्दी बनती है तर्कसंगत राय में बहुत समय लगता है। हम किवदंती से मुक्त हो या नहीं लेकिन किसी भी इंसान को उसकी ज़िंदगी के वास्तविक स्वरूप से हीजाना जा सकता है। अज्ञेय और प्रेमचंद को एक ही पैमाने पर नहीं परखा जा सकता है। वशिष्ठ जी के बारे में जितना कहा जाए उसके बहुत सीरे है।






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