बस्तर और कश्मीर – इतिहास, तकदीर एक सी, क्या समाधान एक सा?
– राजीव रंजन प्रसाद
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धारा 370 के आपत्तिजनक प्रावधानों के हटाये जाने, जम्मू और कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करने तथा परिक्षेत्र में भारतीय संविधान की प्रतिस्थापना के साथ यह आशा बंधती है कि समस्या ने अपने स्थाई समाधान की ओर कदम बढा दिये हैं। कोई संदेह नहीं कि यह असम्भव कार्य था। भारत सरकार ने अत्यधिक योजनाबद्धता, प्रभावशालिता तथा दृढ इच्छाशक्ति से इसे सम्भव बनाया है। अभी आधी लड़ाई जीती गयी है, आधा रास्ता तय किया जाना है। अलगाववादियों की प्रतिक्रिया पर अंकुश लगाना, सीमापार को उचित प्रत्युत्तर देने के साथ साथ शांतिप्रिय आम लोगों में विश्वास की बहाली करने जैसे महत्व के कार्य शेष हैं।
कश्मीर का जिक्र आता है तो बस्तर समस्या पर भी ध्यान चला ही जाता है। इसका कारण केवल यह नहीं कि आज बस्तर और कश्मीर दोनो ही परिक्षेत्रों का परिचय आज आतंकवाद है। अपितु इस समानता के अतिरिक्त भी देश के इन सुदूर इलाकों का वर्तमान ही नहीं इतिहास भी आपस में गहरा सम्बंध रखता है। क्या आपने ध्यान दिया है कि इन दोनो ही क्षेत्रों में नगरों-गाँवों के नाम में गहरी समानता है? कश्मीर के कुपवाडा, हंदवाडा जैसे नाम क्या आपको बस्तर के गमावाडा या दंतेवाड़ा से साम्यता रखते प्रतीत नहीं होते? थोडा बारीकी से इसे समझने का प्रयास करें तो जहाँ बस्तर में वर्ष 760 ई. से 1324 ई. तक छिंदक नागवंशीय शासकों का वर्चस्व रहा कश्मीर का भी पूर्वकालिक इतिहास नागों के अस्तित्व और महत्ता को रेखांकित करता है। आज जिस तरह बस्तर में स्थान स्थान अप्र नागों की प्रतिमायें, मंदिर और उनके शासन के अवशेष प्राप्त होते हैं वैसे ही कश्मीर में विभिन्न मंदिर तथा जलस्त्रोत आदि दीख पड़ते हैं जिनके नाम नागों पर आधारित हैं। भेजा, उर्पला और नाल्टी में वासुकी नाग के मंदिर बने हुए हैं तो सतिंगल गाँव में संतन नाग की समाधि देवदार के जंगलों में स्थित है। कश्मीर क्षेत्र में अनेक नगरो के नाम आज भी नागों पर आधारित हैं जिनमे अनंतनाग, वेरीनाग, शेषनाग आदि प्रमुख हैं। कमला चोटी पर वासुकी नाग की झील है जो कि भद्रवाह का एक प्रमुख तीर्थ स्थान भी है।
इस तरह के नामकरण को समझने के लिये नागों की शासन व्यवस्था का परिचय आवश्यक है। बस्तर में नागों की शासन व्यवस्था का स्वरूप देखें तो प्राचीन बस्तर चक्रकोटराष्ट्र कहलाता था। राष्ट्र का विभाजन महामण्डल (राज्य) में होता था, जिसके प्रशासक महामाण्डलिक/महामण्डलेश्वर कहलाते थे। अगला विभाजन थे – मण्डल अर्थात नाडु, जिन्हें प्रशासकीय दृष्टि के वर्तमान संभागों के समतुल्य कहा जा सकता है; माण्डलिक ‘मण्डलाधिपति’ कहलाते थे। प्रत्येक नाडु अनेक ‘वाडि’ (विषय) मे बिभाजित थे, इन्हें वर्तमान प्रशासनिक ईकाइयों में जिलों के समतुल्य रखा जा सकता है; वडि के प्रशासक विषयपति कहलाते थे। यह प्रतीत होता है कि वाडि नागरिकों के कार्यों अथवा व्यावसायवार भी बँटे हुए थे। सोमेश्वरदेव के एक अभिलेख में जिन वाडियों की चर्चा है वे हैं – कुम्हारवाड, मोचिवाड, कंसारवाड, कल्लालवड, तेलिवाड, परियटवाड, चमारवाड तथा छिपवाड। वाडि के अगले विभाजन नगर, पुर तथा ग्राम (नाडु) थे। ‘ग्राम’, ‘वाडा’ तथा ‘नार’ तीनों ही के तद्युगीन प्रयोग को आज भी देखा जा सकता है उदाहरण के लिये- जिणग्राम, दंतेवाडा, नकुलनार आदि। बस्तर के इस नाग कालीन प्रशासनिक विभाजन को कश्मीर के वर्तमान नगरों-गाँवों के नामों से मिलान कर समानताओं को सहज महसूस किया जा सकता है।
इतिहास और वर्तमान का इतिफाक केवल इतना ही नहीं है इन दोनों ही क्षेत्रों को अलगाववाद की आँधी में झोंकने का भी निरंतर प्रयास रहा है। किसी भी तरह की हिंसा किसी का भी आंदोलन नहीं हो सकती। एक ओर बम विस्फोट किये जाते रहें, बारूदी सुरंगे बिछायी जायें तो दूसरी तरफ राज्य, नीरो वाली बांसुरी बजाता नहीं बैठ सकता। कश्मीर और बस्तर की समस्याओं में अब यह भी देखा जा रहा है कि जो आग फैलायी जा रही है उसकी चिंगारी का स्त्रोत एक ही है। शहरी नक्सलवाद का आरोप झेल रहे गौतम नवलखा बस्तर में नक्सल समर्थक आलेख भी लिखते हैं तथा हाल ही में उनपर कश्मीर में आतंकवादियों से सम्बंध रखने के आरोप भी लगे हैं। अरुंधति राय बस्तर के नक्सलियों को विषयवस्तु बनाती हैं वे यासीन मलिक के साथ तस्वीर खिंचाती और अलगाववाद के समर्थन में आलेख भी लिखती हैं। जेएनयू में जब ‘कश्मीर माँगे आजादी’ के नारे जगाये जाते हैं तो उसमें ‘बस्तर माँगे आजादी’ को भी जोडा जाता है।
कश्मीर की भांति बस्तर में किसी धारा-अनुच्छेद को नहीं अपितु उग्रता तथा हत्या की विचारधारा को समाप्त किये जाने की त्वरित आवश्यकता है। नक्सलवाद का समाधान भी एक सुदृढ राजनैतिक इच्छाशक्ति से निकाला जा सकता है।…..इसे विडम्बना कहिये अथवा संयोग परंतु बस्तर और कश्मीर का भाग्य एक ही कलम से लिखा गया है। क्या यह उम्मीद की जाये कि कश्मीर और बस्तर दोनो ही समाधानों की दिशा भी एक साथ ही तय करने वाले हैं? आशावादिता तो यही कहती है।
– राजीव रंजन प्रसाद
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