राजनीति के चश्में से न देखें कश्मीर में क्या होने वाला है

डा सुरजीत कुमार सिंह

जम्मू कश्मीर को लेकर डरने की जरूरत नहीं है, केंद्र में मजबूत सरकार है और बहुत मजबूत सरकार है। जो भारत की सरकार कर रही है, वह सही कदम है, हर चीज को राजनीतिक चश्मे से देखना डरकर देखना और भय से देखना और हर चीज में आशंका दर्शाना अच्छी बात नहीं है। जम्मू कश्मीर की समस्या का हल होना ही चाहिए और बहुत अच्छे से हल होना चाहिए। बल्कि इसके अलावा समस्या का तो हल पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का भी होना चाहिए। अक्साई चीन की समस्या का भी हल होना चाहिए और अरुणाचल के ऊपरी हिस्से की जो जमीन चीन के पास है, उसका भी हल होना चाहिए। डोकलाम विवाद भी हल होना चाहिए। नेपाल के साथ जो काली नदी के पानी के जल बंटवारे का झगड़ा है, वह भी निपटना चाहिए। पाकिस्तान के साथ जो सिंधु नदी जल बंटवारे का झगड़ा है, वह भी निपटना चाहिए। यह सब ऐसे मामले हैं, जो साल दर साल, हर साल हम लोगों को परेशान करते हैं। देश की बहुत सारी ऊर्जा, पत्रकारों, समाचार चैनलों और समसामयिक मामलों पर नज़र रखने वाले लोगों, इतिहासकारों, राजनैतिक लोगों और कूटनीतिक लोगों को, भारतीय सेना के लोगों को, अर्ध सैनिक बलों के लोगों और अधिकारियों को इन सब मामलों में अपना बहुत अधिक समय, ऊर्जा व धन आदि का व्यय करना पड़ता है। सेना और अर्धसैनिक बल वहां पर अपनी जान देते हैं। इसलिए इन समस्याओं का स्थाई हल होना जरूरी है। जो प्रयोग इस समय भारत की केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार कर रही है, वह प्रयोग भी देखे जाने चाहिए, इसमें कोई बुराई नहीं है।
मेरी अपनी राय यह है कि वहाँ पर अनुच्छेद 370 और 35 A हटना ही चाहिए। आप कल्पना कर सकते हैं कि जम्मू-कश्मीर हमारे राष्ट्र  राज्य का हिस्सा है, हमारे भारत देश का हिस्सा है, लेकिन वहां का अपना एक अलग संविधान है, वहां का एक अपना अलग  झंडा है। वहां पर किसी भी  दूसरे भारतीय को रहने जमीन खरीदने  और  अन्य गतिविधियां करने की  पाबंदी है। ऐसा कैसे चलेगा कि वहाँ पर दो झण्डे हों और दो संविधान हो।
यह तो सच्चाई ही है कि आतंकवाद के समय में जम्मू कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को गोलियों से भून भूनकर मार दिया गया। उनको जम्मू कश्मीर छोड़ने को मजबूर किया गया, ताकि जब कभी रेफरेंडम कराया जा सके, जनमत कराया जा सके, तो फिर जब वहां कश्मीरी आवाम के दूसरे समाज के लोग नहीं होंगे, फिर वहां एक ही समुदाय के लोगों का बोलबाला होगा और वे लोग धार्मिक आधार पर पाकिस्तान से जा मिलेंगे, जैसा कि पाकिस्तान चाहता है। इसके अलावा लद्दाख में जो कुछ हुआ, वहां के बौद्ध धर्म के अनुयायियों पर आतंकवादियों ने बहुत अधिक जुल्म ढाए। उनकी बहन बेटियों की अस्मत लूटी, उनके साथ जबरदस्ती विवाह किए और उनके साथ सैकड़ों की संख्या में बलात्कार हुए। जम्मू कश्मीर में हालात लद्दाख से बहुत अधिक अच्छे हैं। जबकि लद्दाख में 6 महीने बर्फ ही रहती है। लेकिन लद्दाख के लोग हमेशा भारत के साथ रहना चाहते हैं, भारतीयों के साथ रहना चाहते हैं। लेकिन यह जम्मू कश्मीर के लोगों को क्या ऐसी मजबूरी है कि वह आजाद कश्मीर की बात क्यों करते हैं। आखिर वहां पर क्या ऐसा तांडव मचा हुआ है कि उनको कश्मीर आजाद चाहिए। जबकि कश्मीर पर भारत की सरकार और भारत के आम आदमी के टैक्स के पैसे से जम्मू कश्मीर के लोग रहते हैं। आजादी की मांग अगर करनी चाहिए तो फिर लद्दाख के लोगों को करनी चाहिए। सबसे ज्यादा कठिन जीवन अगर है तो लद्दाख के लोगों का है। लेकिन वे भारत के साथ रहना चाहते हैं। बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर ने जम्मू कश्मीर की समस्या का स्थाई हल ढूंढने के लिए कहा था कि जम्मू कश्मीर और लद्दाख को 3 राज्यों में अलग-अलग रूप से विभाजित कर देना चाहिए और इन तीनों राज्यों में भारतीय सेना के रिटायर्ड अधिकारियों और सैनिकों की बस्तियों को बसा देना चाहिए। बाबा साहब ने तो यहां तक कहा था आगे बढ़कर कि वहां पर महार रेजीमेंट के रिटायर्ड अधिकारियों को बसाना चाहिए। इसलिए यह एक ऐसी समस्या है, जो कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमेशा नासूर की तरह चलती रहती है। इसका स्थाई समाधान जरूरी है। इसलिए कश्मीर को लेकर ज्यादा हाय तौबा मचाने की जरूरत नहीं है। कश्मीर कोई फारूक अब्दुल्ला के बाप का नहीं है। उमर अब्दुल्ला के बाप का नहीं है और महबूबा मुफ्ती के बाप का नहीं है। जम्मू कश्मीर सबका है, हर भारतीय का है और उसका इतिहास एक गौरवशाली इतिहास है। इसलिए एक महबूबा मुफ्ती, फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला के हल्ला मचाने से कुछ नहीं होने वाला। पहले भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी शेख अब्दुल्ला को कई वर्ष जेल में रखा था। अब मुझे लगता है फिर वैसा ही समय आ रहा है, जब उमर अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को और इसके अलावा पत्थर फेंकने वाले भाड़े के आतंकवादियों को आर्थिक रूप से धन मुहैया कराने वाले भट्ट बंधुओं, गिलानीओं आदि को जेल में डाल दिया जाना चाहिए।

(लेखक डा सुरजीत कुमार सिंह वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विवि में सहायक प्रोफेसर हैं.)






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