आखिरी बार आपने कब सोचा था पर्यावरण के बारे में

नीतीश पांडेय

पर्यावरण रक्षा के लिए नियम है, परंतु इनका सम्मान नहीं किया जाता। पर्यावरणीय नियम का न्यायालय या पुलिस के डंडे के डर से नहीं बल्कि दिल से सम्मान करना होगा।

प्रकृति जो हमें जीने के लिए स्वच्छ वायु, पीने के लिए साफ शीतल जल और खाने के लिए कंद-मूल-फल उपलब्ध कराती रही है, वही अब संकट में है ।राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्राप्त गंगा भी इससे अछूती नहीं है। झील झरने सूख रहे हैं। जंगलों से पेड़ और वन्य जीव गायब होते जा रहे हैं।यही हाल हवा का है। शहरों की हवा तो बहुत ही प्रदूषित कर दी गई है, जिसमें हम सभी का योगदान है।
शहरी हवा में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें घुली रहती हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा हाइड्रो कार्बन के साथ बढ़ रही है। वहीं खतरनाक ओजोन के भी वायुमंडल में बढ़ने के संकेत हैं। विकास की आंधी में मिट्टी की भी मीट्टी-पलीद हो चुकी है। जिस मिट्टी में हम सब खेले हैं, जो मीट्टी खेत और खलीहान में है, खेल का मैदान है, वह तरह-तरह के कीटनाशकों को एवं अन्य रसायनों के अनियंत्रित प्रयोग से प्रदूषित हो चुकी हैं।
सवाल यह है कि इन पर्यावरणीय समस्याओं क्या कोई हल है? क्या हमारी सोच में बदलाव की जरूरत है? दरसअल प्रकृति को लेकर हमारी सोच में ही खोट है। तमाम प्राकृतिक संसाधनों को हम धन के स्रोत के रूप में देखते हैं और अपने स्वार्थ के खातिर उसका अंधाधुंध दोहन करते हैं। हम यह नहीं सोचते हैं कि हमारे बच्चों को स्वच्छ व शांत पर्यावरण मिलेगा या नहीं।

वर्तमान स्थितियों के लिए मुख्य रूप से हमारी कथनी और करनी का कर्म ही जिम्मेदार है। एक ओर हम पेड़ों की पूजा करते हैं तो वहीं उन्हें काटने से जरा भी नहीं हिचकते। हमारी संस्कृति में नदियों को मां कहा गया है, परंतु उन्हीं मां स्वरूपा गंगा-जमुना, महानदी की हालत किसी से छिपी नहीं है। इनमें हम शहर का सारा जल-मल, कूड़ा-कचरा, हार फूल यहां तक कि शवों को भी बहा देते हैं। नतीजतन अब देश की सारी प्रमुख नदियां गंदे नालों में बदल चुकी हैं। पेड़ों को पूजने के साथ उनकी रक्षा का संकल्प भी हमें उठाना होगा।

जरूरत हमें स्वयं सुधरने की है, साथ ही हमें अपनी आदतों में पर्यावरण की ख़ातिर बदलाव लाना होगा। याद रहे हम प्रकृति से हैं प्रकृति हम से नहीं।
बदलती जलवायु के प्रमुख कारण कार्बन डाइऑक्साइड की अधिक मात्रा से गरमाती धरती का कहर बढ़ते तापमान के रूप में अब स्पष्ट दृष्टि गोचर होने लगा है। तापमान का बदलता स्वरूप मानव द्वारा प्रकृति के साथ किए गए निर्मम तथा निर्दयी व्यवहार का सूचक है। अपने ही स्वार्थ में अंधे मानव ने अपने ही जीवन प्राण वनों का सफाया कर प्रकृति के प्रमुख घटकों – जल, वायु तथा मृदा से स्वयं को वंचित कर दिया है।
गरमाती धरती का प्रत्यक्ष प्रभाव समुद्री जल तथा नदियों के जल के तापमान में वृद्धि होना है, जिसके कारण जलचरों के अस्तित्व पर सीधा खतरा मंडरा रहा है। पानी के आभाव में जब कृषि व्यवस्था का जब दम टूटेगा तो शाकाहारियों को भोजन का आभाव झेलना एक विवशता होगी।
अन्यथा सूखते जल स्रोत, नमी मुक्ति सूखती धरती, घटती आक्सीजन के साथ घटते धरती के प्रमुख तत्व, बढ़ता प्रदूषण, बढ़ती व्याधियां, पिघलते ग्लेशियरों के कारण बिन बुलाए मेहमान की तरह प्रकट होती प्राकृतिक आपदाएं मानव सभ्यता को कब विलुप्त कर देंगी, पता नहीं चल पाएगा।






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