बुधनमा अब दलित नहीं रहा
– नवल किशोर कुमार
परिवर्तन संसार का नियम है। इसे सभी स्वीकारते हैं। चाहे वे किसी भी वाद के झंडा ढोने वाले क्यों न हों। लोकतंत्र भी इसी विश्वास पर आधारित है कि सत्ता का हस्तांतरण क्रमवार होते रहने से गतिशीलता भी बनी रहेगी और प्रतिनिधित्व के सवाल भी हल होते रहेंगे। भारतीय समाज में पहले ऐसा नहीं होता था। उच्च जातियों के लोगों की सत्ता बनी रहती थी। आज भी है लेकिन इसका स्वरूप बदला है। बुधनमा भी बदल गया है। हालांकि आज उसकी जाति दलित है, लेकिन वह दलित नहीं रहा।
वह तो बिल्कुल राही मासूम रजा के उपन्यास के एक कैरेक्टर की तरह हो गया है जिसका जन्म तो दलित परिवार में हुआ। आजादी के बाद जब जमींदारी उन्मूलन हुए तब वह चुनाव लड़ा और जीत भी गया। इस उपन्यास को पढ़े लंबा अरसा हो गया सो इस कैरेक्टर का नाम याद नहीं आ रहा। सुविधा के लिए उसको बुधनमा ही मान लेते हैं।
तो मैं कह रहा था कि जैसे नीम का पेड़ उपन्यास में बुधनमा का चरित्र बदलता है और वह बदलाव अप्राकृतिक नहीं है। आखिर बुधनमा कबतक बिना चप्पल के चलता रहे। विधायक बन गया तो उसे भी गाड़ी चाहिए ही थी। बंगला भी जरूरी था। फिर चाहे वह उसका गांव हो या फिर लखनऊ शहर या दिल्ली। बंगला जरूरी है। जिस समुदाय के अधिकांश लोगों के पास रहने तक की भूमि नहीं है, यदि वह समर्थ होने पर बंगले बनाता है तो इसमें गलत क्या है। भ्रष्टाचार वगैरह के आरोप बेमानी हैं। सभी वंचितों को भ्रष्टाचार का अधिकार मिलना ही चाहिए। जमीन और पूंजी वालों की ईमानदारी का कोई मतलब नहीं है।
तो बुधनमा भ्रष्टाचारी भी है। वह स्वार्थी भी है। वह आंबेडकर की कसम खाता है। अपने अधिकारों की बात करता है और साथ ही ब्राह्मणों की तरह बनने का प्रयास भी करता है। एक बार बुधनमा मंत्री-संतरी बन जाय तो फिर दलित कहां रह जाता है। उसको तो अपने भाई-बहनों से भी नफरत होती है।
सवाल यह है कि आखिर बुधनमा को करना क्या चाहिए। जवाब के लिए आंबेडकर के पास चलते हैं। उनके पास तो खूब जवाब है। जाति का विनाश में वे इसका खुलासा करते हैं कि कैसे बुधनमा शिक्षित बने, संगठित बने और संघर्ष करे। लेकिन आंबेडकर यह नहीं बताते हैं कि जबतक जाति का विनाश न हो जाय तबतक बुधनमा क्या करे। एकदम से तो जाति खत्म होगी नहीं। हालांकि उन्होंने डायनामाइट से जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात कही है, लेकिन समाज शास्त्र में डायनामाइट की परिभाषा बिल्कुल पृथक है।
बुधनमा भी डायनामाइट के बारे में जानता है। नक्सलवाड़ी आंदोलन के दौरान बारूद और डायनमाइट के परिणाम वह झेल चुका है। बड़ी संख्या में बुधनमाओं की मौत हुई। अकेले केवल बिहार में 1960 के दशक से लेकर 2010 तक की अवधि में दस हजार से अधिक बुधनमाओं की हत्याएं हुई हैं। यह आंकड़ा अनुमानित है। अधिकारिक आंकड़े जारी ही नहीं किये गये हैं। बुधनमा कहां से गिने अपनों की लाशें।
खैर बुधनमा अब एक ताकत बन चुका है। रामविलास पासवान को देखिए। दलित हैं लेकिन अधिकांश जागरूक दलित उन्हें दलित नहीं मानते। उन्हें वे वंशवादी के रूप में जानते हैं। यह सही भी है। कोई अपने बेटे और भाईयों को संसद में पहुंचाने के लिए यदि इतनी मशक्कत करता है तो वंशवाद ही सही, गलत क्या है। जिनको गलत कहना है कहते रहें। बुधनमा अब सबके मुंह में सोने के चम्मच से दारू तो नहीं ही पिला सकता है।
बुधनमा मायावती की तरह रंग बदलता है। उसे ऊंची जातियों से आगे निकलना है। उसको राज करना आ गया है। वह ब्राह्मणों के माथे पर चढ़ता भी है और ओबीसी के तो माथे पर पेशाब भी खूब मजे से करता है।
सब ठीक है। बुधनमा की सामाजिक और राजनीतिक हिस्सेदारी बढ़नी ही चाहिए। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। आंबेडकर भी यही करते थे। वे कांग्रेसियों का विरोध करते थे। लेकिन सत्ता से दूर नहीं थे। बुधनमा यही कर रहा है। वह ब्राह्मणवाद का विरोध करता है और ब्राह्मणों के जैसा बनना भी चाहता है।
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