लालू यादव ने वंचित जनता को स्वर्ग नहीं, लेकिन स्वर ज़रूर दिया
लालू यादव के सत्ता में आने से वंचित जातियों में ये एहसास आया कि उनके बीच का या उनके प्रति हमदर्दी रखने वाला कोई ऊपर बैठा है.
दिलीप मंडल
बिहार लालू यादव से पहले भी देश का सबसे बीमार, गरीब और अशिक्षित राज्य था. लालू प्रसाद का शासन खत्म होने के लगभग 14 साल बाद भी बिहार सबसे बीमार, गरीब और अशिक्षित राज्य है. इसलिए यह सवाल गैरवाजिब है कि लालू प्रसाद ने बिहार को यूरोप क्यों नहीं बना दिया.
जब हम यह सवाल श्रीकृष्ण सिन्हा, माहामाया प्रसाद सिंह, केदार पांडेय, केबी सहाय, बिंदेश्वरी दुबे, भागवत झा, जगन्नाथ मिश्र, नीतीश कुमार जैसे मुख्यमंत्रियों और पिछले 15 साल में ज्यादातर समय वित्त मंत्री रहे सुशील मोदी से नहीं पूछते, तो ये सवाल सिर्फ लालू प्रसाद से कैसे पूछा जा सकता है?
बिहार के पिछड़ेपन को मुख्यमंत्रियों या किसी एक मुख्यमंत्री का जिम्मा मानना समस्या का सरलीकरण करना होगा. बिहार भारत के विकास के मॉडल का पिछवाड़ा क्यों बना, इसके लिए कई और फैक्टर्स को देखना होगा. लालू की कहानी शायद कुछ और है.
लालू यादव को लेकर ये सवाल राजनीति में हमेशा पूछा जाता है कि ये शख्स इतने लंबे समय तक राजनीति में प्रासंगिक कैसे बना हुआ है. लालू यादव ने कुछ तो ऐसा किया, जिसकी वजह से वह बिहार और भारत की राजनीति में खत्म नहीं हो रहे हैं. वैसे तो, जमाना उनके खिलाफ है.
लगभग हर कोई उनका विरोधी है और उनके अंत की कामना करता है. मीडिया उनके खिलाफ है. नौकरशारी उनके खिलाफ है. जांच एजेंसियां उनके खिलाफ हैं. न्यायालय उनको लेकर रहम नहीं बरतता. कांग्रेस ने उन्हें एक समय निपटाने की खूब कोशिश की.
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केंद्र में जब जनता दल की सरकार थी और एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री थे, उसी दौर में सीबीआई ने पहली बार उनके खिलाफ केस दायर किया और बीजेपी तो उनके खिलाफ हाथ धोकर पड़ी है. लेकिन कोई तो बात है कि ये आदमी खत्म ही नहीं होता. उनकी राजनीतिक मौत की सारी भविष्यवाणियां गलत साबित हो चुकी है. उनकी पार्टी असंख्य बार टूट चुकी है. कभी नीतीश कुमार निकल गए तो कभी शरद यादव, तो कभी पप्पू यादव तो कभी रामकृपाल. लेकिन लालू हैं कि बने हुए हैं.
आज भी लालू यादव की पार्टी बिहार विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी है. 243 में से 81 विधायक आरजेडी के जीते हैं. जिस समय पूरे देश में नरेंद्र मोदी की लहर मानी जा रही थी और मोदी-अमित शाह की जोड़ी देश की सबसे असरदार वोट जुटाऊ मशीन का तमगा हासिल कर चुकी थी, उस समय लालू यादव ने 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी को रोक दिया.
2015 में बिहार में सिर्फ 53 सीटें पाकर बीजेपी सूबे में तीसरे नंबर की राजनीतिक ताकत बन गई. लालू यादव आज जेल में हैं, लेकिन जब वे इलाज कराने दिल्ली आते हैं तो राहुल गांधी से लेकर कई राजनीतिक दलों के नेता उनसे मिलने आते हैं. उनके राजनीतिक वारिस तेजस्वी यादव जब दिल्ली में विपक्षी दलों को एक मंच पर बुलाते हैं तो हर पार्टी अपने सबसे बड़े नेता को वहां भेजती है. तेजस्वी यादव का ही मंच है, जहां राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जैसे राजनीतिक विरोधी एक मंच पर आते हैं.
तो फिर वही सवाल. लालू यादव ने आखिर बिहार की जनता को ऐसा क्या दिया कि जनता बार-बार अपने वोट उनको दे आती है? इसे यादव जाति के प्रिज्म से देखने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन यहां भी संतोषजनक जवाब नहीं मिलता. सिर्फ एक जाति के वोट से बिहार ही क्यों, देश में कहीं भी कोई एक विधानसभा सीट भी नहीं जीत सकता.
लालू यादव को यादव नेता कहने वाले लालू यादव को समझने में नाकाम लोग हैं. सच तो यह है कि बिहार के सारे यादव लालू यादव के समर्थक भी नहीं हैं. लालू यादव का विरोध करने वाले कई यादव नेता यादव बहुल सीटों से चुनाव जीतते रहे हैं. ऐसे नेताओं में शरद यादव, हुक्मदेव नारायण यादव से लेकर पप्पू यादव और रामकृपाल यादव शामिल हैं.
लालू यादव दरअसल बिहार में 1980 के दशक के आखिर में शुरू हुई एक राजनीतिक प्रक्रिया की उपज हैं, जिसे क्रिस्टोफ जैफरले साइलेंट रिवोल्यूशन कहते हैं. यह दलित, पिछड़ी और मध्यवर्ती जातियों में राजनीतिक महत्वाकांक्षा पैदा होने और उसके हिसाब से राजनीतिक गोलबंदी करने से शुरू हुई और इसकी वजह से कई राज्यों में नई राजनीतिक शक्तियां और नेता सामने आए. लालू प्रसाद ने बिहार में उसी धारा का नेतृत्व किया.
बिहार जैसे पिछड़े और सामंती मूल्यों वाले राज्य में पहली बार कोई नेता सामंतवादियों को उसकी भाषा में जवाब दे रहा था. वे सवर्णों के सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व को भदेस तरीके से चुनौती दे रहे थे.
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लालू यादव ने पहली बार चरवाहा स्कूल की बात सोची ताकि पशुपालन करने वालों के बच्चों को शिक्षा मिल सके. यह प्रयोग सफल नहीं रहा, लेकिन इस बारे में सोचना भी कोई साधारण बात नहीं थी. गरीब और स्लम के बच्चों को दमकल के पाइप से नहलाने से गरीब बच्चे हमेशा के लिए साफ-सुथरे नहीं हो गए. लेकिन ये तो पता चला कि कोई है जो उनकी परवाह करता है. मुसहर जाति की एक औरत को लोकसभा में पहुंचाना हाशिए पर रह रहे एक समुदाय को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने की बड़ी पहल थी. लालू यादव ने अपने पहले कार्यकाल में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों का सख्ती से पालन किया.
ये सब तो वे काम थे जो शासन के स्तर पर हो रहे थे. लेकिन लालू यादव के सत्ता में होने की वजह से समाज में भी कई प्रक्रियाएं शुरू हो गईं. इसका असर उन लोगों तक पहुंचा जो आम तौर पर न तो किसी सरकारी योजना का लाभ ले पाते हैं, न सरकार उन तक पहुंचती है. समाज की वंचित जातियों में ये एहसास आया कि उनके बीच का या उनके प्रति हमदर्दी रखने वाला कोई आदमी ऊपर बैठा है. इस अहसास को न तो नापा जा सकता है, न इसका कोई आंकड़ा होता है. इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है. ऐसा लगता है कि बिहार के वंचितों ने इसे महसूस किया.
लालू यादव के सत्ता में न होने से वह सामाजिक समूह खुद को अकेला और अनाथ महसूस करता है इसलिए वो हर बार लालू यादव को वोट डालता है. इसी तरह का एहसास मुसलमानों में भी है. लालू यादव के शासन में पूरा प्रशासन बेशक बहुत असरदार न हो, लेकिन वो इतना असरदार तो था ही कि दंगाइयों को काबू में रखे.
चूंकि लालू यादव नहीं चाहते थे कि प्रदेश में दंगे हों, तो बिहार के अन्यथा निकम्मे प्रशासन से चुस्ती बरतते हुए बिहार में दंगे रोक दिए. इस वजह से अल्पसंख्यकों का लालू प्रसाद पर अब भी भरोसा कायम है. 1990 में राममंदिर आंदोलन के क्रम में जब लालकृष्ण आडवाणी देश भर में रथ लेकर घूम रहे थे और यात्रा मार्ग में दंगे हो रहे थे, तो इस रथ को रोकने का साहस सिर्फ लालू प्रसाद ने दिखाया. लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया और रथ लेकर अयोध्या पहुंचने के आडवाणी का सपना धरा का धरा रह गया.
2015 में भी जब लग रहा था कि नरेंद्र मोदी पूरा देश जीत लेंगे और आरएसएस फिर से संविधान समीक्षा की बात करने लगा था, तो लालू प्रसाद ने मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी एक बयान को चुनाव का मुख्य मुद्दा बना दिया और चुनौती दे डाली की माई का दूध पिया है तो आरक्षण खत्म करके दिखाओ. लालू यादव ने चुनाव को सांप्रदायिक बनाने और गाय को चुनाव के केंद्र में लाने की बीजेपी की पूरी योजना को ध्वस्त कर दिया. ये बात और है कि उस बीजेपी विरोधी जनादेश को नीतीश कुमार ने बीजेपी को सौंप दिया.
बिहार में दलितों और पिछड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा और अल्पसंख्यक जब तक लालू प्रसाद के साथ हैं, तब तक लालू प्रसाद की राजनीति खत्म कैसे हो सकती है? इसलिए लालू यादव बने हुए हैं. तमाम बीमारियों और जेल में रहने के बावजूद. उन्होंने बिहार के वंचितों को स्वर्ग तो नहीं दिया, लेकिन स्वर ज़रूर दिया. ये कोई मामूली बात नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आलेख द प्रिंट से साभार)
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