नवल किशोर कुमार
1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद यादव ने बिहार की राजनीति की दिशा को पूरी तरह से बदल दिया। जो जातियां विकास में पीछे कर दिए गए हैं/रखे गए हैं, उन्हें सशक्त बनाने का पहला प्रयास लालू प्रसाद ने राजनीति में भागीदार बनाकर किया। वे यह मानते थे कि एक बार यदि वंचित समाज के लोग राजनीति में हिस्सेदारी लेने लगेंगे फिर वंचितों को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकेगा। आज इसका असर दिख भी रहा है। चाहे वह बिहार की राजनीति हो या दिल्ली की, राजनीति के केंद्र में दलित,आदिवासी और ओबीसी हैं। अलबत्ता सत्ता की बागडोर भले ही उंची जातियों के पास ही है। रामकृपाल यादव और श्याम रजक लालू प्रसाद के उपरोक्त विचारधारा के उपज हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि दोनों राजनीतिक रूप से पहले से ही सक्रिय नहीं थे।
रामकृपाल यादव नगर निगम पालिटिक्स में थे और श्याम रजक चंद्रशेखर के साथ पहले से ही सक्रिय थे। इन दोनों को लालू प्रसाद ने राजनीति में आगे बढ़ाया। रामकृपाल यादव विधायक से लेकर सांसद तक बने। वहीं श्याम रजक 1995 में जब बिहार की जनता का अपार समर्थन लालू प्रसाद को मिला था तब विधायक चुने गए थे। लालू प्रसाद ने 1997 में श्याम रजक को मंत्री भी बनाया। राजनीतिक परिस्थितियां एक जैसी नहीं होती हैं। लालू प्रसाद चारा घोटाले में दिन पर दिन फंसते चले गए। 2005 में जब सत्ता से बाहर हुए तब भी राम और श्याम नामक दो प्यादों ने लालू प्रसाद का साथ नहीं छोड़ा। लालू का साथ सबसे पहले श्याम रजक ने छोड़ा। 2009 में वे राजद की ओर से जमुई लोकसभा क्षेत्र में उम्मीदवार बनाए गए थे। जीत जदयू के उम्मीदवार भूदेव चौधरी को मिली थी। श्याम रजक यह मानते थे कि उनकी हार इसलिए हुई क्योंकि राजद के एक ताकतवर नेता के कहने पर यादवों ने उनका साथ नहीं दिया। इसी बात से नाराज श्याम रजक ने लालू प्रसाद का साथ छोड़ दिया और नीतीश कुमार के शरणागत हुए। वहीं रामकृपाल यादव पहले से ही लालू को छोड़कर चले जाना चाहते थे। यहां तक कि अब्दुल बारी सिद्दीकी ने भी लालू को मझधार में छोड़ अपने लिए रास्ता तलाश लिया था। इनके अलावा और भी अनेक नेता थे जिन्हें लालू के कारण मजबूती मिली थी और वे लालू प्रसाद से अलग होने को बेताब थे। शकुनी चौधरी भी ऐसे ही नेता थे।
खैर, रामकृपाल यादव को लालू प्रसाद ने राज्यसभा भेजा। वे चाहते थे कि उनकी बड़ी बेटी मीसा भारती को पाटलिपुत्र से चुनाव लड़ाकर संसद भेजा जाय। रामकृपाल यादव को राज्यसभा भेजने का एक मतलब यह भी था। लेकिन रामकृपाल ने विद्रोह कर दिया। यह मामला 2014 का है। रामकृपाल यादव ने अपने बेटे के लिए पाटलिपुत्र का टिकट मांगा। लालू प्रसाद ने मना कर दिया। साथ ही लालू ने अपनी बेटी की उम्मीदवारी की घोषणा कर दी। यही वह मौका था जिसका इंतजार रामकृपाल कर रहे थे। ‘लालू की पीकदानी ढोनेवाले’ (ऐसी ऊंची जातियों के पत्रकार रामकृपाल के लिए करते थे) से मुक्ति के लिए रामकृपाल ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली और खुद उम्मीदवार बन बैठे। मोदी की लहर पर सवार होने के बावजूद रामकृपाल यादव को नाकों चने चबाने पड़े मीसा भारती को हराने में।
खैर, राजनीति में कौन सही और कौन गलत है, इसका फैसला करना जनता का काम है.
(पत्रकार नवल किशोर के फेसबुक टाइमल लाइन से साभार)
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