राजनीति में समाहित है जाति, इसलिए भारत में जीवित है लोकतंत्र
वीरेंद्र यादव के साथ रणभूमि की तपिश-5
पिछले दो दशक से अधिक की पत्रकारिता में हमने समाज और सामाजिक बनावट को काफी करीब से देखा। देखने की कोशिश की। हर कोशिश में समाज का एक नया रूप सामने आया। जब से हमने अपनी पत्रिका ‘वीरेंद्र यादव न्यूज’ शुरू की, तब से समाज को देखने का नजरिया बदल गया। समाज का हमारे प्रति भी नजरिया बदला। हमने जाति को विषय के रूप में चुना और इसी पर केंद्रित काम भी किया। इस काम को राजनीति और समाज में स्वीकार्यता भी मिली। हम इस काम को आगे बढा़ने के लिए एक संस्था ‘वीरेंद्र यादव इस्टीट्यूट ऑफ कास्ट स्टडी’ जून महीने से शुरू कर रहे हैं। इसके माध्यम से हम विधानसभावार जातियों का विश्लेषण करेंगे। जातियों की संख्या ही नहीं, बल्कि उनका वोट बिहैब का भी स्टडी करेंगे।
पिछले साढ़े तीन वर्षों से हम लगातार जाति को लेकर काम कर रहे हैं। खबरों में जातीय आग्रह को लेकर हम बदनाम भी रहे हैं। वीरेंद्र यादव को लेकर राजनीतिक और मीडिया के गलियारे में अलग-अलग धारणाएं हैं। इन धारणाओं के बीच हम लगातार जाति को लेकर आक्रमक रहे हैं तो वजह है कि जाति सबसे ज्यादा पठनीय विषय है। जाति को लेकर लोगों में उत्सुकता रही है। बिहार या बिहार के बाहर से लोग हमसे बिहार की राजनीति को लेकर चर्चा करते हैं। बातचीत में किसी व्यक्ति ने नीतीश कुमार के विकास, लालू यादव के सामाजिक न्याय या नरेंद्र मोदी के अच्छे दिन पर बात नहीं की। सभी ने जाति, जातीय समीकरण और जाति की राजनीति को लेकर ही चर्चा की।
बिहार में लोग विकास, सामाजिक न्याय या अच्छे दिन के लिए वोट नहीं देते हैं। बिहार का मतदाता जाति के मुखिया, जाति के विधायक या जाति के सांसद के लिए वोट देता है। इस जाति के उम्मीदवार को जीताना है या उस जाति के उम्मीदवार को हराना है। इसलिए मतदान करते हैं। जाति के तरह धर्म भी वोट देने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करता है। मुस्लिम प्रभाव वाले निर्वाचन क्षेत्रों में धर्म भी मतदान का बड़ा कारक होता है।
दरअसल भारतीय राजनीति में धर्म और जाति समाहित है। इसलिए भारत में लोकतंत्र जीवित है और लगातार मजबूत हो रहा है। जिस दिन राजनीति से धर्म और जाति अलग हो जाएगी, उस दिन लोकतंत्र लड़खड़ाने लगेगा। लोग वोट देने नहीं जाएंगे। डिहरी में कभी प्रदीप जोशी धार्मिक गोलबंदी से चुनाव जीत जाते हैं तो ओबरा से सोमप्रकाश यादव जातीय गोलबंदी से चुनाव जीत जाते हैं। ठीक इसी तरह तरारी में सुदामा प्रसाद (हलवाई) और कांटी में अशोक चौधरी (पासी) मजबूत जाति (भूमिहार) के आपसी बिखराव चुनाव जीत जाते हैं।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया दलीय व्यवस्था से संचालित होती है। इसलिए जातियों को दल के खांचे में बंटना पड़ता है। यह बंटवारा एक तरफा नहीं होता है। यह बंटवारा कभी क्षेत्र विशेष को लेकर होता है तो कभी सीट विशेष को लेकर। कई बार उम्मीदवार विशेष से भी प्रभावित होता है। लेकिन इसके केंद्र में जाति ही होती है।
सरकार भी अपनी नीतियों के निर्धारण में जातियों का ख्याल रखती है। हाल के महीनों में केंद्र और राज्य सरकार के कई निर्णय सीधे-सीधे जातीय हितों से प्रभावित रहे हैं। जनता का मतदान भी जातीय हितों से प्रभावित होता है। चुनाव में सीटों और उम्मीदवारों के चयन और जीत की संभावना भी जातीय आधार पर तय होती है। भारतीय लोकतंत्र की आत्मा जाति व धर्म में बसती है। विकास, सामाजिक न्याय और अच्छे दिन जातीय हितों को प्रभावित करने वाले कारक हैं। आखिरी लक्ष्य जाति के हितों के साथ पार्टी को जोड़ना होता है। जाति के अहंकार को पार्टी से जोड़ना होता है। बिहार में जाति और पार्टी एक-दूसरे के पूरक हैं और आपसी हितों को साधना ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया का उद्देश्य बन गया है। पार्टीगत और जातिगत हितों की प्रक्रिया में हमारा लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। यह भी विडंबना है कि निर्वाचन आयोग जाति के आधार पर वोट मांगने से रोकता है और देश में जाति के बिना वोट नहीं मिलता है, टिकट नहीं मिलता है, उम्मीदवार नहीं मिलता है।
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