इस पूर्व आईपीएस को पहला कौर उठाते ही अपना हाथ खून से सना क्यों नजर आने लगता है!!
गुज़रा हुआ ज़माना !
धुव्र गुप्त
अपने लंबे पुलिस जीवन के कुछ अनुभव ऐसे रहे जो आज रिटायरमेंट के वर्षों बाद भी सोचने पर सुख देते हैं, दुख देते हैं और परेशान करते हैं। आज उस दौर का अपना सबसे दुखद अनुभव आपसे साझा करना चाहता हूं। बात 1981 की है जब मैं जिला ट्रेनिंग में लगभग डेढ़ सालों तक छपरा में पदस्थापित था। तब छपरा-पटना हाईवे पर डोरीगंज का क्षेत्र मार्ग डकैतों से बुरी तरह आक्रांत था। एक रात गश्ती के सिलसिले में मैं डोरीगंज के गंगा घाट पर रात के सन्नाटे में नदी के कोलाहल का आनंद ले रहा था। कुछ दूसरे अधिकारी और सशस्त्र बल के जवान मेरे आसपास मौजूद थे। आधी रात के बाद एक चौकीदार ने आकर सूचना दी कि कुछ किलोमीटर दूर पांच-छह गाड़ियां लूटने के बाद डकैत गंगा दियारे की ओर भागे हैं। मैं फ़ौरन घटना-स्थल पर पहुंचा जहां यात्रियों की चीख-पुकार मची थी। एक अधिकारी को यात्रियों के बयान लेने के लिए छोड़कर मैं पुलिस बल के साथ गंगा के दियारे में प्रवेश कर गया। नदी के किनारे खड़ी एक नाव से नदी पार कर सात-आठ किलोमीटर दूर आरा जिले के दियारे में अपराधियों के लिए कुख्यात एक गांव में पहुंचा। वहां दर्जनों घरों की तलाशी में डकैती में लूटी गई लगभग तमाम संपति बरामद हो गई और कुछ अपराधी भी पकडे गए। सुबह हुई तो अपराधियों और बरामद संपति के साथ अधिकारी और कुछ जवानों को तुरंत थाने लौट जाने को कहा। मैं खुद दो-तीन जवानों के साथ वहां एकत्र ग्रामीणों से देर तक पूछताछ में लगा रहा। जबतक मैं नदी पार करने के लिए गंगा के उस किनारे पहुंचा तब तक गर्मी का सूरज सर पर आ गया था। भूख और प्यास के मारे बुरा हाल था। आसपास कहीं कोई गांव नहीं। चापाकल का तो सवाल ही नहीं। नदी के किनारे थोड़ी दूरी पर फूस और फटे कपड़ों से बनी एक अस्थायी झोपडी देखी तो भागकर वहां पहुंचा। झोपडी में लगभग साठ साल का एक दुबला-पतला बूढा व्यक्ति मौजूद था। शायद थोड़ी-बहुत मछलियां पकड़ कर आसपास के गांवों में बेचने के लिए वहां टिका था। मैंने उससे पूछा कि क्या वह हम तीन लोगों को कुछ खिला सकता है ? उसके पास एक गमछे में लगभग आधा किलो मोटा चावल उपलब्ध था। हमें नदी का पानी पिलाने के बाद वह थोड़ी-बहुत छोटी-छोटी मछलियां पकड़ ले आया। ईंट के चूल्हे पर पतीले में चावल डाला और नीचे आग में मछलियां। भात तैयार हुआ तो आग से मछलियां निकाल कर उसमें थोड़ा तेल, लहसुन और नमक डालकर मछली का तेज चोखा बनाया। हम भोजन पर टूट पड़े। भात थोड़ा कच्चा था और मछलियां कुछ अधपकी। बावजूद इसके वह मेरे जीवन का सबसे स्वादिष्ट भोजन था जिसका स्वाद 38 साल बाद आज भी नहीं भूल पाया हूं। चलते समय मैंने उसे कुछ रुपए देने चाहे लेकिन उसने पैसे लेने से इनकार कर दिया। मेरे जबरदस्ती करने पर वह हाथ जोड़कर रोने लगा।
कुछ महीनों बाद छपरा से मेरा ट्रांसफर हुआ तो मैं उस बूढ़े मल्लाह से मिलने एक बार फिर गंगा पार के दियारे में गया। वहां झोपडी गायब थी। कुछ दूरी पर स्थित एक गांव के लोगों ने बताया कि पुलिस को खाना खिलाने के अगले दिन से ही वह बूढा और उसकी झोपड़ी दोनों गायब हैं। लोगों को संदेह था कि पुलिस मुखबिर होने के संदेह में डकैतों ने उसे मारकर गंगा में उसकी लाश बहा दी थी। उसके घर का पता किसी को मालुम नहीं था। मैं उस उजड़ी हुई झोपड़ी के पास बैठकर देर तक रोया। भारी क़दमों से छपरा लौटा तो कई दिनों तक उदास रहा। उसका मासूम चेहरा और उसके भोजन का स्वाद मुझे आज भी नहीं भूला है। उस घटना के बाद कई बार मैंने मोटे चावल का भात और छोटी मछलियों का चोखा खाने की कोशिश की, लेकिन पहला कौर उठाते ही अपना हाथ मुझे खून से सना नजर आने लगता है और क्षमा की याचना में मेरे हाथ आकाश की ओर उठ जाते हैं।
( धुव्र गुप्त भारतीय पुलिस सेवा के रिटायर्ड अधिकारी हैं. यह संस्मरण उनके फेसबुक टाइमलाइन से साभार लिया गया है)
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