ओबीसी : राजनीति में आगे, हक लेने में पीछे
– नवल किशोर कुमार
देश में ओबीसी की राजनीति रंग ला रही है। आरएसएस ने यह बात तभी भांप ली थी जब 2004 में शाइनिंग इंडिया पूरी तरह विफल हो गयी थी। तब आरएसएस ने कमान संभालते हुए अपनी रणनीति में बदलाव किया और ओबीसी की राजनीति को हवा दी।
परिणामस्वरूप नरेंद्र मोदी को गुजरात से दिल्ली लाया गया और एक दशक बाद 2014 में आरएसएस सत्ता पर कब्जा कर पाया।
इससे पहले कई राज्यों में ओबीसी की राजनीति पहले से ही कुलांचे भर रही थी। फिर चाहे वह यूपी, बिहार हो या मध्य प्रदेश लेकिन इन सबके बावजूद कड़वी सच्चाई यह है कि आज भी देश के अधिसंख्य राज्यों में ओबीसी को वह आधा-अधूरा हक भी नहीं मिल पा रहा है, जिसका अधिकार मंडल कमीशन के लागू होने के बाद मिलना चाहिए था।
मसलन, केंद्र के स्तर पर भले ही ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देय है, लेकिन आज भी प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी और तृतीय श्रेणी की नौकरियों में ओबीसी की हिस्सेदारी 8 से 10 फीसदी ही है। दक्षिण के राज्यों में ओबीसी आरक्षण की स्थिति अच्छी है। जाहिर तौर पर यह वहां लंबे समय से द्विजों के खिलाफ चल रहे सामाजिक आंदोलनों का असर है।
शेष भारत के राज्यों की कहानी एक जैसी नहीं है।
मसलन हरियाणा में ओबीसी को तीन वर्गों में बांटा जा चुका है। यहां पिछड़ा वर्ग -1 को 16 फीसदी, पिछड़ा वर्ग – 2 को 11 फीसदी और स्पेशल बैकवर्ड क्लास को 10 फीसदी आरक्षण दिया जाता है। जबकि अनुसूचित जाति को यहां 20 फीसदी आरक्षण देय है। हरियाणा देश के उन राज्यों में शुमार है जहां सवर्ण समाज को भी आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत और 3 फीसदी आरक्षण विकलांगों को दिया जाता है। यानी यहां आरक्षण की सीमा 70 फीसदी है।
चलिए हरियाणा से निकलकर दक्षिण के राज्य तामिलनाडु पर नजर डालते हैं। यहां भी 69 प्रतिशत आरक्षण है। इसमें पिछड़ा वर्ग को कुल मिलाकर 50 फीसदी आरक्षण है। हालांकि यहां भी पिछड़ा वर्ग को दो भागों में बांटा गया है। पिछड़ा वर्ग(20 प्रतिशत) और अति पिछड़ा वर्ग(30 प्रतिशत)। जबकि अनुसूचित जाति के लिए 18 और अनुसूचित जनजाति के लिए 1 प्रतिशत आरक्षण है। तामिलनाडु में ओबीसी की राजनीतिक धरातल मजबूत होने की बड़ी वजह पेरियार-करूणानिधि द्वारा बनाया गया सामाजिक आधार है। यहां हालत यह रही है कि जयललिता जो कि ब्राह्मण परिवार से संबंध रखती थीं, उनहोंने भी ओबीसी के आरक्षण को छेड़ने की कोशिश नहीं की।
दक्षिण के इस राज्य से निकलकर पूर्वोत्तर भारत के झारखंड चलते हैं। यहां भी 60 फीसदी सीटें आरक्षित हैं। इनमें ओबीसी को 22 फीसदी, अनुसूचित जाति को 11 फीसदी और अनुसूचित जनजाति को 27 फीसदी आरक्षण है।
मध्य भारत के राज्य महाराष्ट्र में ओबीसी को 32 प्रतिशत, अनुसूचित जाति को 13 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति को 7 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। अब यहां मराठा भी अपने आपको आरक्षित श्रेणी में रखने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। माना जा रहा है कि महाराष्ट्र सरकार ओबीसी को मिलने वाले 32 प्रतिशत आरक्षण में से ही मराठाओं को आरक्षण का लाभ देगी। वजह यह कि यहां आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक है और इसे लेकर बांबे हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में मामला विचाराधीन है।
ओबीसी के लिहाज से कर्नाटक महत्वपूर्ण राज्य है। यहां कुल 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं। इनमें ओबीसी को अकेले 32 फीसदी आरक्षण है। अनुसूचित जाति को 15 और अनुसूचित जनजाति को 3 फीसदी आरक्षण दिये जाने का प्रावधान है। वहीं केरल में भी ओबीसी का आरक्षण 40 फीसदी है। 8 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जाति और 2 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जनजाति को दिया जाता है।
दक्षिण के इन राज्यों के इतर यूपी और बिहार जहां ओबीसी की राजनीति पिछले तीन-चार दशकों से प्रभावी रही है, यहां ओबीसी की हिस्सेदारी सवाल खड़े करती है। मसलन उत्तर प्रदेश में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण है। जबकि अनुसूचित जाति को यहां 21 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति को केवल 2 प्रतिशत आरक्षण मिलता है। इस प्रकार यहां आरक्षण की कुल सीमा केवल 50 फीसदी है। पड़ोसी राज्य बिहार में भी यही हाल है। हालांकि यहां ओबीसी को 34 प्रतिशत आरक्षण है। अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के लिए एक प्रतिशत आरक्षण है।
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