वीरेंद्र यादव.पटना.
पटना के अधिवेशन भवन में बीबीसी हिंदी का कार्यक्रम था-बोले बिहार। इसमें एक सत्र का विषय था- क्या दलित और मुसलमानों को पार्टियों ने सिर्फ इस्तेमाल किया। इसमें कांग्रेस के शकील अहमद खान, भाजपा के संजय पासवान और जदयू के अशोक चौधरी शामिल थे। ‘दलित-मुसलमान कथा’ के श्रोता के रूप में हम भी मौजूद थे। इस कथा वाचन के दौरान के एक बात हमारे दिमाग में आयी कि क्या भाजपा यादवों का इस्तेमाल सिर्फ वोट के लिए करना चाहती है। क्या भाजपा अहीरों को तेली के ‘कोल्हू के बैल’ के तरह पालती है। मुहावरे को मुहावरे की तरह समझिगा। किसी शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति की जाति से मत जोड दीजिएगा।
वर्तमान में बिहार से भाजपा के चार यादव लोकसभा सदस्य हैं। उनमें से एक प्रदेश अध्यक्ष हैं। एक यादव राष्ट्रीय महामंत्री और बिहार प्रभारी हैं। एक यादव विधायक मंत्री भी हैं। नाम तो आप जान ही रहे हैं। हम भाजपा पर यादवों को पालने का आरोप नहीं लगा रहे हैं। हम उन यादवों से पूछना चाहते हैं कि जो जाति के नाम पर सत्ताशीर्ष पर पहुंचे हैं। हम यह जानना चाहते हैं कि अपने सांसद, विधायक या प्रभारी होने के पद की जिम्मेवारी उठाते हुए यादव के नाम पर कितने लोगों का भला किया। शादी-विवाह और मरनी का भोज खाने के अलावा। यही सवाल गैरभाजपा विधायकों से भी है।
भाजपा यादवों को कुर्सी पर बैठाकर उनका मुंह ‘सील’ देती है या कुर्सी पर बैठक भाजपाई यादव खुद मुंह पर ‘जाब’ डाल लेते हैं। समझना मुश्किल है। नरेंद्र मोदी 6 साल पहले अहीरों के लिए द्वारिका से संदेश लेकर आये थे, लेकिन किसी ने सुना नहीं। भाजपा का दावा रहा है कि यादव भाजपा के साथ जुड़ रहे हैं। लेकिन यह भी इतना
बिहार कथा
ही सच है कि भाजपा का यादव नेता या कार्यकर्ता खुद को भूमिहार समझने लगता है। वह भूमिहार के कुर्ता के क्रीच और जूता की पालिस से अपने कुर्ता और जूता की तुलना करने में व्यस्त हो जाता है। इससे न भाजपा का भला होता है और न यादवों का। इसलिए भाजपा और यादवों दोनों को अपने संबंधों पर पुनर्विचार करना चाहिए। जब तक भाजपा का यादव भूमिहार की भाषा बोलता रहेगा, भूमिहार को आदर्श मानता रहेगा, तब तक आम यादव के लिए भाजपा के प्रति आकृष्ट होना संभव नहीं है। और जो हैं, वे कोल्हू के बैल की तरह खुद को ‘विश्वभ्रमण’ का भ्रम पालते रहेंगे।
{वीरेंद्र यादव के फेसबुक टाइमलाइन से साभार}
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