कृषि क्षेत्र में विकास दर शून्य, फिर बिहार में कैसा विकास
आर्थिक सर्वेक्षण व बजट में की गई है आंकड़ों की बाजीगरी
कुमार परवेज.पटना. भाकपा-माले राज्य सचिव कुणाल ने कहा है कि आर्थिक सर्वेक्षण व आज पेश बजट में बिहार सरकार ने आंकड़ों की बाजीगरी की है और इसके जरिए सकल उत्पादन में अमीरपरस्त वितरण को छिपाने की कोशिश की है. सरकार का दावा है कि बिहार ने तकरीबन 11 प्रतिशत विकास दर हासिल कर लिया है, जबकि कृषि क्षेत्र में विकास दर 0.1 प्रतिशत यानि लगभग शून्य है. हर कोई जानता है कि बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है और सूबे की बड़ी आबादी कृषि पर ही निर्भर है. जब कृषि ठहराव की स्थिति में है तब सरकार का 11 प्रतिशत विकास का दावा पूरी तरह खोखला व झूठा साबित होता है. सरकार किसानों व बटाईदारों के पंजीकरण का दावा कर रही है लेकिन धान अथवा गेहूं की सरकारी खरीद पूरी तरह बंद है. किसान बिचैलिए के हाथों बिकने के लिए मजबूर हैं. मक्का-केला व अन्य फसलों की बात ही छोड़दी जाए. गन्ना उत्पादक किसानों की कीमत में कोई वृद्धि नहीं की गई है. उन्हें बकाए की राशि भी नहीं मिल रही है और घटतौली अभी भी जारी है. अधिकांश सरकारी नलकूप बंद पड़े हुए हैं, नए नलकूपों की तो चर्चा बेकार है. सोन नहर प्रणाली के साथ-साथ अधिकांश नहर प्रणालियां, पईन व सिंचाई की अन्य प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी हैं. विगत वर्ष बाढ़ व सूखा पीड़ित किसानों को आज तक कोई मुआवजा नहीं मिला. अतः आय बढ़ने का दावा जमीनी हकीकत के एकदम उलट है.
मनरेगा ग्रामीण रोजगार का एक बड़ा साधन था. राज्य में तकरीबन 1.3 करोड़ लोग कार्डधारी हैं. 13-14 में 6 प्रतिशत लोगों को सौ दिन काम मिला था जो 17-18 में गिरकर 0.7 प्रतिशत हो गया है. यह रोजगार की असली तस्वीर है. जीएसटी व अन्य कारणों से लाखों मजदूर बिहार लौट आए और भारी बेरोजगारी का सामना कर रहे हैं. राज्य की अर्थव्यवस्था आज भी बाहरी कमाई पर ही केंद्रित है और आंतरिक गत्यात्मकता कमजोर बनी हुई है. पलायन आज भी जारी है और भाजपा शासित प्रदेशों गुजरात अथवा अन्य दूसरे राज्यों में बिहारी मजदूरों पर लगातार हमला हो रहा है.
शिक्षा के क्षेत्र में सरकार बजट में अधिक राशि की बात कह रही है लेकिन बजट के मदों में असमान वितरण है. स्कूलों की आधारभूत संरचनाएं पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी हैं. स्कूलों की संख्या में वृद्धि का दावा झूठा है. विगत साल सरकार ने 1880 प्राथमिक स्कूल बंद कर दिए और अभी डेढ़ हजार स्कूल बंद करने वाली है. 30 छात्रों पर एक शिक्षक का अनुपात किसी भी प्राथमिक विद्यालय में लागू नहीं है. तकरीबन 3 लाख स्कूली शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं. विश्वविद्यालयों में भी आधे से अधिक शिक्षक व कर्मचारियों के पद खाली हैं. बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ती ही जा रही है. जाहिर है कि प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी का सरकारी दावा वास्तविक स्थिति के एकदम उलट है. शिक्षा का निजीकरण भी तेजी से हो रहा है.
स्वास्थ्य में डाॅक्टरों के 57 प्रतिशत नियमि व 77 प्रतिशत संविदा आधारित पद खाली हंै. सरकारी आंकड़े के ही अनुसार अस्पताल में भर्ती का प्रतिशत 13-14 में 84 प्रतिशत से गिरकर 17-18 में 62 प्रतिशत रह गया है. इसका मतलब है कि स्वास्थ्य को निजी क्षेत्र में तेजी से हस्तांतरित किया जा रहा है और सरकार अपनी संवैधानिक जवाबदेही से भाग रही है.
उद्योग – धंधे में तो किसी भी प्रकार का विकास नहीं है. रसोइया व अन्य स्कीम वर्करों के श्रम का शोषण बदस्तूर जारी है. इन तबकों के श्रम का कौड़ी भर भाव नहीं है. रसोइयों को महज 1250रु. में खटवाया जा रहा है. 12 महीने के बदल उन्हें 10 महीने की मजदूरी मिल रही है. कोई अन्य सुविधाएं हासिल नहीं है. उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिल रही है और सरकार अपने ही कानूनों की धज्जियां उड़ा रही है.
सरकार वित्तीय प्रबंधन में अव्वल होने का दावा करती है लेकिन बिहार में सृजन, जीएसटी, धान, शौचालय, दवा आदि कई वित्तीय घोटाले उजागर हुए हैं. पूरा प्रदेश आज भारी करप्शन की चपेट में है. भाजपा-जदयू शासन में एनजीओ को विकास कार्याें में भागीदार बनाने की नीति की वजह से भ्रष्टाचार संस्थाबद्ध हुआ है.
सरकार का दावा है कि बिहार में क्राइम राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे हैं. लेकिन प्रत्येक दिन दर्जनों हत्याएं हो रही हैं, माॅब लिंचिंग, समाज में घृणा व दंगा, समाज के कमजोर वर्गों पर हमले आम बात हो गई है. महिला बलात्कार की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है. सरकारी आंकड़े के अनुसार 2011 में बलात्कार की 936 घटनाएं 2018 में 1400 तक पहुंच गई हैं. जाहिर है वास्तविक तस्वीर कहीं और भयावह है. मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड मामले में सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार और पूरे मामले को दिल्ली शिफ्ट करने की कार्रवाई ने साबित कर दिया है कि राजनीतिक संरक्षण में ही ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया गया. बिहार में पूर्व आईपीएस आॅफिसर अमिताभ कुमार दास रणवीर सेना की हिट लिस्ट में हैं. जब इस स्तर के अधिकारी बिहार में सुरक्षित नहीं हैं, तो आम आदमी की क्या बिसात?
शराबबंदी कानून में अब भी शराब माफियाओं के बदले दलित-गरीबों को टार्गेट किया जा रहा है और हजारों को जेल में बंद कर दिया गया है जबकि शराब का अवैध कारोबार ख्ूाब फल-फूल रहा है.
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