चरखा है, चश्मा है, टोपी है, लाठी है मगर असहमति का विवेक कहीं खो गया है
पुष्यमित्र
पिछले दिनों मैं सेवाग्राम गया था. वहां जाकर मन प्रसन्न हो गया. महाराष्ट्र के गांवों की पुराने जमाने की वे खपरैल झोपड़ियां आज भी उसी रूप में है, जिस रूप में तब थी जब गांधी जी वहां रहते थे. उनके द्वारा की जाने वाली सर्वधर्म प्राथना की परंपरा भी उसी तरह रोज आज भी जारी है. आश्रम में गांधी जी द्वारा इस्तेमाल की गयी चीजें भी हैं, इनमें वह हॉट लाइन भी है, जिसे वायसराय ने लगवाया था ताकि आकस्मिक स्थिति में गांधी जी से बातचीत की जा सके, वह बाथ टब भी है जो जमनालाल बजाज गांधी जी के लिए बनवाया था. उनके वजन नापने की मशीन भी है और दूसरी कई चीजें हैं.
आश्रम में ही एक कुटिया ऐसी है, जहां आज भी चरखे पर सूत काटा जाता है और करघे पर कपड़ा तैयार होता है. आप वहां से अपनी नजर के सामने तैयार खादी का कपड़ा खरीद सकते हैं. जो भोजनालय है वहां बिल्कुल जैविक भोजन मिलता है, खाद और कीटनाशन के प्रकोप से मुक्त. नयी तालीम नाम का एक स्कूल भी है, जो बिल्कुल उसी तरह से चलता है, जैसे गांधी के जमाने में चलता था. मतलब यह कि आप सेवाग्राम के गांधी आश्रम जाकर उस दौर को महसूस कर सकते हैं, जिस दौर में गांधी वहां रहा करते थे.
दरअसल सेवाग्राम को गांधी का आखिरी घर कहा जाता है. दांडी यात्रा के बाद गांधी ने तय किया था कि अब जब तक भारत आजाद नहीं होता है, तब तक वे लौट कर साबरमती आश्रम नहीं जायेंगे. वे मध्य भारत में एक आश्रम बसाना चाहते थे. तब उस वक्त के गांधीवादी उद्यमी जमनालाल बजाज ने उन्हें वर्धा में अपने घर में रखा और सेगांव नाम के इस गांव में अपनी जमीन इस आश्रम के लिए दान दे दी. तब गांधी ने शर्त रखी कि इस आश्रम में कोई भी घर सौ रुपये से अधिक कीमत का न बने. फिर स्थानीय साधनों से और स्थानीय लोगों की मदद से खपरैल भवन बनवाये गये. फिर धीरे-धीरे दूसरी चीजें विकसित हुईं.
आप सहज ही समझ सकते हैं कि ऐसी जगह में होना किस तरह की आत्मिक शांति का अनुभव कराता है. वहां विश्व शांति भवन के नाम से एक खपरैल ऑडिटोरियम भी हैं, जहां विश्व शांति सभा का आयोजन हुआ था. उसी ऑडिटोरियम में हमने तीन दिनों तक खूब चर्चाएं कीं. अद्भुत था वह अनुभव, हालांकि इसके बावजूद एक चीज मिसिंग थी.
वहां शांति थी, सरलता और सहजता थी, स्वाबलंबन था, निर्मलता थी, शुद्धता थी, मगर एक चीज नहीं नजर आ रही थी जो गांधी की सबसे बड़ी पहचान है. और वह थी अपने समय के सवालों को लेकर एक अहिंसक हस्तक्षेप, सविनय अवज्ञा, सत्याग्रह. हमने सेवाग्राम से उठी किसी ऐसी आवाज को नहीं सुना जो देश को राह दिखाती हो, संशय की स्थिति में गांधीवादी सुझाव बताते हुए सही राह बताती हो. जब देश जल रहा हो तो वहां से उठी पानी की फुहारें उन लपटों को बुझा सके. जब सत्ता अनियंत्रित हो तो सेवाग्राम के उठी आवाज लोगों को ताकत दे सके.
यानी सेवाग्राम में गांधी के कर्मकांड तो थे, मगर वह विद्रोही आत्मा कहीं नजर नहीं आयी जो नमक जैसी सस्ती चीज पर टैक्स लगाने के मसले को पूरे देश का सवाल बना देते थे. जो मोतीहारी की कचहरी में खड़े होकर कहते थे कि मुझे जेल जाना है, जमानत नहीं लेनी है, मगर मैं आपका आदेश नहीं मानना. जो असहयोग आंदोलन का आगाज कर देते और पूरे देश में लोग नौकरियां और पढ़ाई छोड़ने लगते, विदेशी कपड़ों का बहिस्कार शुरू हो जाता. जो दंगा रोकने के लिए नोआखली और बिहार के इलाके में पैदल भटकते और लोगों का अपमान और तिरस्कार झेलते. कलकत्ते में भाषण देकर जिसने बंटवारे के वक्त बंगाल की सीमा पर संभावित कत्लेआम को अपने प्रेम और अहिंसा की ताकत से रोक दिया था.
यह कहानी सिर्फ सेवाग्राम की नहीं है, साबरमती की भी है और दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान की भी आज की कहानी है, खास कर जब वहां अनुपम जी नहीं हैं. देश के तमाम गांधी प्रतिष्ठानों में चरखा है, प्रार्थनाएं हैं, चश्मा है, लाठी-लुकाठी है, झोपड़ियां हैं मगर असहमति का विवेक और साहस सिरे से अनुपस्थित है. सत्ता और समाज को दिशा देने की जो महती जिम्मेदारी गांधीवादियों की है, उसे उन्होंने थोड़े से ग्रांट के चक्कर में छोड़ दिया है. गांधी के इस देश में गांधीवाद की यह मौजूदा कहानी है. यहां गांधीवाद एक कर्मकांड बनकर रह गया है.
अपनी बात कहूं तो मैं खुद को सबसे अधिक गांधीवाद के करीब पाता हूं, मगर जब किसी मसले पर सवाल उठाने का वक्त आता है तो अपने आसपास वामपंथियों को और समाजवादियों को देखता हूं. मौका पड़ने पर हिंसा के समर्थक माने जाने वाले वामपंथी भी गांधी के साथ खड़े हो जाते हैं, मगर गांधी को कोई स्वच्छता का ब्रैंड अंबेस्डर बना दे, कोई शराबबंदी तक सीमित कर दे, गांधीवादियों को कोई फर्क नहीं पड़ता. अब तो गांधी पीस फाउंडेशन में ब्रह्मर्षि मुखिया की श्रद्धांजली सभा होती है और राजघाट में आरएसएस का सम्मेलन. जब यह सब देखता हूं, महसूसता हूं तो भारी कोफ्त होती है.
सेवाग्राम में जुटी उस सभा में भी आधे से अधिक वाम विचारधारा से जुड़े लोग थे, जो गांधी की प्रासंगिकता को तलाशने वहां पहुंच गये थे. उन्हें मालूम है कि यह गांधी का देश है, अगर प्रतीकों की लड़ाई भी लड़ने है तो गांधी के साथ खड़ा होना पड़ेगा. ये वही गांधी हैं जिन्होंने वाम विचारधारा पर रत्ती भर भरोसा नहीं किया. वे कहते थे कि इंसान कोई मशीन नहीं है जो सब बराबर और एक जैसे हो जायेंगे. वे हर इंसान के अनूठेपन में विश्वास करते थे और उनका भरोसा था कि इंसान के अंदर जो खूबसूरत सा दिल है, वही उसे दूसरों से प्रेम करना सिखायेगा और जब इंसान की जाति प्रेम से भर उठेगी तो अन्याय और शोषण भी खत्म हो जायेगा.
मगर उन्हें इस बात का अहसास था कि वामपंथी विचारधारा भारत के युवाओं को भी अपनी तरफ आकर्षित कर रही है, इसलिए उन्होंने समाजवादी विचारों में दीक्षित होकर यूरोप से लौटे जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और जय प्रकाश नारायण जैसे युवकों को अपने साथ जोड़ा और उन्हें अहिंसा और प्रेम के महत्व से परिचित कराया. हालांकि वे सुभाष को समझा नहीं सके, जय प्रकाश भी एक हद तक ही अहिंसक रह पाये. फिर भी, ये लोग उन कथित गांधीवादियों से बेहतर साबित हुए जो चरखा कातने का स्वांग भरकर सत्ता के करीब होने की कोशिश करते थे.
कभी-कभी सोचता हूं, कि क्या यह गांधीवादी विचारों की अपनी कमी है कि यहां आकर लोग कर्मकांड में फंस जाते हैं, उस मर्म को नहीं समझते जो सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह की जान थी. जिसकी आज के समाज को सबसे अधिक जरूरत है. समय के सवालों के साथ हस्तक्षेप करना और शोषण का विरोध करना गांधीवाद का मूल होना चाहिए था. मगर वह हाशिये पर भी नहीं है. जब तक प्रतिरोध की संस्कृति गांधीवाद का मूल नहीं बनेगी, हम लाख भाषणों में कहें कि गांधीवाद प्रासंगिक है, उसकी प्रासंगिकता बस सजावटी रह जायेगी. यही बात अलग तरीके से उस सभा में मैंने कही थी.
आज से साल भर चलने वाला गांधी की 150वीं जयंती का जो कर्मकांड शुरू हो रहा है, वह निरर्थक और सजावटी ही रहेगा. आयोजन होंगे, सभाएं होंगी, किताबें छपेंगी, फिल्में बनेंगी, कुछ गांधीवादी पहचान और इनाम हासिल करेंगे, मगर हासिल कुछ नहीं होगा. अगर इस अवसर को यादगार बनाना चाहते हैं तो उस प्रतिरोध, हस्तक्षेप की भावना को जगाने की कोशिश करें, जो गांधीवाद की आत्मा है. जैसा आज चंपारण में पंकज जी कर रहे हैं, भूमिहीनों को जमीन दिलाने के लिए वे आज से भू-सत्याग्रह शुरू कर रहे हैं. काश अगले एक साल में ऐसे सत्याग्रह सैकड़ों की संख्या में हो.
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