अरुण कुमार
आज मुहर्रम है! नहीं पता कि मुहर्रम की शुभकामनाएं दी जाती है या कुछ और? जब तक गांव में था तब तक पता ही नहीं चला कि मुहर्रम हिन्दुओं का त्योहार है या मुसलमानों का। मेरे गांव अहियापुर में हकीम मियां ताजिया बनाते थे जिसे हमलोग ‘दाहा’ कहते थे। मेरे गांव में सभी जातियों के अलग-अलग टोले हैं लेकिन हकीम मियां का परिवार हमारी जाति के ही टोले में बस गया था। ऐसा कैसे हो गया किसी को नहीं पता। ‘दाहा’ बनाने का काम हकीम मियां दस-पन्द्रह दिन पहले से ही शुरू कर देते थे और हमारे टोले के कई बच्चे उनकी मदद किया करते थे। हम उन्हें कभी बांस की कमची तो कभी कागज़ काट कर देते। पूरे गांव की हिन्दू महिलाएं दाहा की पूजा करती और प्रसाद के रूप में चावल और गुड़ बांटतीं। मुस्लिम बच्चों के साथ-साथ हिन्दू बच्चे भी लाठी भांजने का अभ्यास करते थे। बाला मियां बहुत अच्छी लाठी भांजते थे और हमलोगों के ट्रेनर भी वही थे। हमारे घरों में बाबा धाम ( देवघर ) की लाठी रहती थी। घर से कोई न कोई हर साल बाबा धाम जाता ही था। कांवर लेकर जब सूइया पहाड़ पर आगे बढ़ते हैं तो चलने के लिए लाठी की जरूरत पड़ती है। हर साल घर में नई लाठी आ जाती और उसी से हम मुहर्रम में लाठी भांजने की प्रैक्टिस करते थे। यह केवल भारत की विशेषता हैं जहां बाबा धाम की लाठी को मुहर्रम में भांजा जा सकता है।
मुहर्रम के दिन हकीम मियां ताजिया लेकर हिन्दुओं के दरवाजे पर भी जाते जहां महिलाएं फूल और पैसे चढ़ाकर पूजा करती थी। साहेबगंज थाना के पास दाहा मेला लगता था वहां की जलेबी बड़ी अच्छी लगती थी। न जाने गांव में अब दाहा की क्या स्थिति है?
( अरुण कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं. यह संस्मरण उनके फेसबुक टाइम लाइन से साभार लिया गया है )
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