अर्बन नक्सल
पुष्य मित्र
यह सच है कि बड़े शहरों में माओवादियों के सिम्पेथाइजर रहते हैं। ये दो तरह के होते हैं। पहला जो इन माओवादी समूह के सदस्य होते हैं और इन्हें वैचारिक मजबूती प्रदान करते हैं। ऐसे लोगों का हस्तक्षेप माओवादी संगठन में भी होता है। दूसरे लोग वे होते हैं, जो मानते हैं कि माओवादियों के मुद्दे सही हैं, मगर तरीका गलत है। ये हिंसक वारदातों का विरोध करते हैं, इनका मानना होता है कि यह आंदोलन अहिंसक तरीके से चलना चाहिये। साथ ही सरकार की उन गतिविधियों पर भी सवाल उठाते हैं, जब माओवादियों के नाम पर मासूम आदिवासियों पर फौज जुल्म ढाती है।
जो लोग माओवादियों के इलाके से परिचित हैं, वे भली भांति जानते हैं कि इन इलाके के लोग दोहरी मार झेलते हैं। माओवादियों की भी और फौज की भी। इन्हें बहुत सतर्क होकर रहना पड़ता है। और चुकी यह जोन एक तरह से कॉन्फ्लिक्ट जोन होता है इसलिये वहां शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरे कई मसलों पर काम करने की जरूरत होती है। कई गांधीवादी विचार के लोग वहां जाकर, रहकर यह सब काम करते हैं।
मगर दिक्कत यह है कि इन सबको सरकार माओवादी कह देती है। क्योंकि ये सरकार पर भी सवाल उठाते हैं जब किसी आदिवासी को माओवादी के नाम पर एनकाउंटर कर दिया जाता है या उठाकर जेल में बंद कर दिया जाता है। सच यह भी है कि ये लोग माओवादी हमलों में फौजियों की मौत पर भी सवाल उठाते हैं। मगर उस वक़्त हम इनकी बात नहीं सुनते।
इस बार का विवाद इसलिये है, क्योंकि सरकार ने माओवादियों के नाम पर उनलोगों को टारगेट किया है जो न्यूट्रल सामाजिक कार्यकर्ता हैं और कॉन्फ्लिक्ट जोन में काम करते हैं। प्रशासन इनसे कोई पुराना हिसाब किताब चुकाने की कोशिश कर रही है।
हालांकि यह सिर्फ मोदी सरकार के वक़्त में नहीं हुआ। यूपीए के राज में भी चिदंबरम यही सब करते रहे हैं। वजह एक ही है। इन इलाकों से माओवादियों को भगाना ताकि मित्तल, जिंदल, अडानी या वेदांता जैसी कम्पनियां यहां माइनिंग कर सके। और हम जानते हैं कि अगर इन इलाकों में ऐसी दैत्याकार कम्पनियां आईं तो आदिवासियों के हिस्से तबाही के सिवा कुछ नहीं आएगा।
और दूसरी हास्यास्पद बात है, वह चिट्ठी जिसके आधार पर कहा जा रहा है माओवादी मोदी की हत्या की प्लानिंग कर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार राजकमल झा ने काफी पहले यह साबित कर दिया है कि चिट्ठी फेक है। चिट्ठी में प्रशांतो दा और किशन जी का अलग अलग तरह से जिक्र है, जबकि माओवादियों के मामले में दिलचस्पी रखने वाले लोग जानते हैं कि दोनों एक ही व्यक्ति है।
पिछले दिनों कई मौके पर यह साबित हुआ है कि सरकार के लोग विपक्ष को कटघड़े में खड़ा करने के लिये वीडियो क्लिप वगैरह के साथ छेड़छाड़ करते रहे हैं। जेएनयू के मामला और अररिया का मामला बहुत साफ है। और यह बहुत बचकानी बात लगती है कि कोई मोदी की हत्या की योजना का जिक्र चिट्ठी में करेगा और उसे अपने लैपटॉप में यूंही पड़े रहने देगा। इस सरकार से जुड़े लोगों की विश्वसनीयता न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। हर दूसरे मामले में यह साबित हो रहा है। नोटबन्दी का मसला तो जगजाहिर है।
मुझे खुद अफसोस है कि मैं नोटबन्दी के वक़्त इस फैसले का समर्थक था और जेएनयू के मामले में भी लगा था कि सरकार सही कह रही है। बार-बार पका हूँ इसलिये दूर हुआ हूँ। और सच यह भी है कि हिंसक माओवादी भी हैं और गौरक्षक भी, सनातनी भी। मगर आप कम से कम मुद्दों के स्तर पर माओवादियों से सहमति रख सकते हैं, कि आदिवासियों और दूसरे वंचित समूहों के साथ भेदभाव होता है। गौरक्षकों के साथ, लिंचिंग करने वालों के साथ आप किस स्तर पर खड़े होंगे। मजहबी पागलपन के नाम पर? सोचिएगा।
( पुष्य मित्र प्रभात खबर से जुडे हैं, यह आलेख उनके फेसबुक टाइम लाइन से साभार लिया गया है )
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