हमहुँ डाकू तुमहुँ डाकू कवना बात के हाला बा
अरुण कुमार
90 के दशक में बिहार में कुछ लोग कहते थे कि अमीरों और विशेषकर डॉक्टरों के यहां डकैती होती रहनी चाहिए क्योंकि इससे काला धन सर्कुलेशन में आता रहता है। जिस धन के संरक्षण और छुपाने के लिए अमीर लोग लगे रहते हैं वह किसी के काम में आने लगता है। मुज़फ्फरपुर के डॉक्टर रत्नेश कुमार के यहां डकैती की जितनी भी निंदा की जाए कम है। मेरी पूरी संवेदना उनके परिवार के साथ है। सुनने में आ रहा है कि डकैतों ने उनके घर से 45 लाख रुपये सहित लाखों की सम्पत्ति लूट ली है।सभ्य समाज में डकैती नहीं होनी चाहिए लेकिन सभ्य समाज में किसी के घर में करोड़ों की सम्पत्ति का छुपा होना भी तो गलत है। संचार के तमाम तरह के साधन डॉ. रत्नेश कुमार के प्रति आम जनता के मन में सहानुभूति पैदा कर रहे हैं। यहां डॉक्टर और डाकू दोनों गलत हैं। दोनों लूट रहे हैं। संजीव के उपन्यास ‘ जंगल जहाँ शुरू होता है’ का डाकू परशुराम ठीक ही कहता है-
हमहुँ डाकू तुमहुँ डाकू कवना बात के हाला बा।
तोहरा खातिर गेट खुलल बा हमरा खातिर ताला बा।
( अरुण कुमार बिहार के हैं और दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं. यह स्क्रीप्ट उनके फेसबुक टाइमल लाइन से साभार )
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