वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी !
Dhruv Gupt
देश में मानसून की बारिश शुरू हो चुकी है। शुरुआत की थोड़ी-सी बारिश के साथ मीडिया में कई शहरों और गांवों में पानी से आई आफत की ख़बरें तैरने लगी है। अपने बचपन के दिन याद करिए जब सावन-भादो की बारिश शुरू होती थी तो कई-कई दिनों तक रुकने का नाम नहीं लेती थी। सड़क और खेत सब पानी-पानी। खपड़ैल का घर टपकता था और रात अपनी खाट घर के इस कोने से उस कोने तक खिसकाने में बीत जाती थी। बारिश या बाढ़ का पानी घरों में घुस गया तब भी बदहवासी नहीं। घुटने भर पानी में छप्पा-छप्पा खेल लिया या कागज़ की कश्ती चला ली। प्रकृति का सहज स्वीकार हुआ करता था तब। बारिश और बाढ़ का पानी ख़ुद में समेट लेने के लिए तब हर गांव-शहर में बड़े-बड़े तालाब और जलाशय भी होते थे और गहरे-गहरे कुएं भी। पानी आया भी तो कुछ ही देर या कुछ ही दिनों में उतर जाता था। प्रकृति-चक्र तेजी से बदला है। वैसी बारिश अब नहीं होती। शहरों और गांवों में आधे घंटे की बारिश हुई नहीं कि लोगों में हाहाकार और मीडिया में आतंक मच जाता है। बारिश का पानी अपने में समेटकर सूखे दिनों में सिंचाई और दैनंदिन के कामों के लिए पानी का इंतजाम करने वाले तालाब गायब होते जा रहे हैं। उनकी जगह ईंट और कंक्रीट के नए-नए जंगल उग रहे हैं। कुएं अब शहरों में तो क्या, गांवों में भी नहीं दिखते। नतीज़तन बारिश अब आनंद का नहीं, आफ़त का सबब है। प्रकृति से लड़ते-लड़ते प्रकृति से कितने दूर होते चले गए हैं हम ? सृष्टि है तो बारिश भी होगी। नदियां हैं तो बाढ़ भी आएंगी। बारिश और बाढ़ अपने साथ पृथ्वी को नए सिरे से गढ़ने का संकल्प लेकर आती हैं। योजनाविहीन शहरों और गांवों के निर्माण, जल-निकासी की कुव्यवस्था, कंक्रीट के जंगल उगाने के लिए असंख्य तालाबों और जलाशयों की हत्या और नदियों पर असंख्य डैम और बांध बनाकर जिस तरह हमने प्रकृति से युद्ध छेड़ा हुआ है, उससे तो ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में हमारे डूब मरने के लिए बारिश का चुल्लू भर पानी भी पर्याप्त होगा।
प्रकृति से सामंजस्य की जगह उसे अपने इशारों पर नचाने की हमारी मूर्खतापूर्ण कोशिशें हमें जहां तक ले आई हैं, क्या वहां से वापसी के तरीके सोचने का वक़्त नहीं आ गया है ?
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