डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजादी के 70 साल बाद भी हमारा देश अंग्रेजी का गुलाम है। किसी भी शक्तिशाली और संपन्न राष्ट्र के अदालतें विदेशी भाषा में काम नहीं करतीं लेकिन भारत की तरह जो पूर्व गुलाम देश हैं, उनके कानून भी विदेशी भाषाओं में बनते हैं और मुकदमों की बहस और फैसले भी विदेशी भाषा में होते हैं। जैसे बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका, मोरिशस आदि ! भारत की अदालतें यदि अपना सारा काम-काज हिंदी में करें तो उन पर कोई संवैधानिक रोक नहीं है लेकिन जब भारत की संसद ही अपने कानून अंग्रेजी में बनाती है तो हमारे न्यायाधीश और वकील भी मनमानी क्यों नहीं करेंगे ? संसद को तो जनता चुनती है लेकिन जजों को तो जज चुनते हैं। जब संसद अपने चुननेवालों या मालिकों की भाषा का ही कोई लिहाज नहीं करती तो जज और वकील क्यों करें ? लेकिन कुछ अपवाद भी हैं। मप्र, उप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के कुछ जजों ने अपने फैसले हिंदी में दिए हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री प्रेमशंकर गुप्ता का नाम इस बारे में विशेष रुप से उल्लेखनीय है।
लेकिन अब पंजाब और हरियाणा के उच्च न्यायालय ने एक साहसिक और सराहनीय फैसला दिया है। मनीष वशिष्ठ नामक एक वकील की याचिका पर उसने तय किया है कि उस अदालत के सभी फैसलों का हिंदी अनुवाद उपलब्ध करवाया जाएगा। यह फैसला न्यायमूर्ति एमएमएस बेदी और न्यायमूर्ति हरिपाल वर्मा ने दिया है। मैं इन दोनों सज्जनों और श्री वशिष्ठ का अभिनंदन करता हूं लेकिन इनसे यह भी पूछता हूं कि आप अपने फैसले और बहस भी मूल हिंदी में क्यों नहीं करते ? अनुवाद क्यों करते हैं ? कई बार अनुवाद तो मूल से भी ज्यादा मुश्किल होता है। हमारा मकसद तो यह है कि बहस और फैसले वादी और प्रतिवादी को भी समझ में आएं। वे उसके लिए जादू-टोना नहीं बने रहें। यदि जज अपने फैसले मूल हिंदी में लिखेंगे तो हमारी संसद और विधानसभाओं को भी कुछ शर्म आएगी। वे भी अपने कानून हिंदी में बनाने के लिए प्रेरित होंगी।
यों तो मौलिक परिवर्तन का नेता संसद को होना चाहिए लेकिन गुलामी के इस दौर में यह काम हमारी अदालतें भी कर सकती है। देश के सभी उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय पंजाब और हरयाणा उच्च न्यायालय का अनुसरण करेंगे, मैं ऐसी आशा करता हूं।
(वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई से साभार )
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