अगर आप अभिभावक हैं तो जाग जाइये

Pushy Mitra

तीन चार दिनों से राजधानी पटना के अलग-अलग स्कूलों में जाने का मौका मिल रहा है. इनमें लोएला पब्लिक स्कूल, डॉन बॉस्को, पटना सेंट्रल स्कूल और केंद्रीय विद्यालय जैसे स्कूल हैं. इन स्कूलों में तकरीबन रोज तीन से चार सौ बच्चे उपस्थित होते हैं और उनमें से कई अपने मन की बात बताते हैं.

मसला है कि उनका बचपन कैसे गुजर रहा है. हम प्रभात खबर की तरफ से उन्हें सुनने के लिए जा रहे हैं. बाद में कुछ एक्सपर्ट उन्हें कुछ सुझाव देने की भी कोशिश करते हैं. हालांकि फास्टफूड की तरह दिये जाने वाले सुझाव से उनके जीवन में कितना फर्क आयेगा यह कहना मुश्किल है. मगर यह बात तय है कि आज के दौर में बच्चे भीषण किस्म की स्थितियों से गुजर रहे हैं.

आज केंद्रीय विद्यालय में एक बच्चे से उसकी रूटीन पूछी तो उसने बताया कि वह सुबह पांच बजे ही उठ जाता है, स्कूल जाने के लिए और स्कूल से लौटते-लौटते एक बज जाता है. फिर खाना-पीना करके वह सो जाता है, क्योंकि सुबह जल्द उठने की वजह से उसकी नींद पूरी नहीं हो पाती. चार बजे शाम में जब वह सोकर उठता है तो होमवर्क बनाने में जुट जाता है. बज जाते हैं साढ़े छह.

तो खेलता कब है? मैंने पूछा तो उसने बताया कि जहां वह रहता है वहां आउटडोर खेल के लिए कोई जगह नहीं है. शाम में सात से साढ़े सात इंडोर गेम खेलता है और फिर टीवी देखता है. यह बच्चा सौभाग्यशाली है, क्योंकि इसके माता-पिता ऐसा महसूस नहीं करते कि उसे ट्यूशन या कोचिंग भेजा जाये. जो बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं या कोचिंग जाते हैं. उन्हें इस बीच में दो घंटे का और वक्त निकालना पड़ता है.

पटना जैसे शहर में एक आठवीं-नौवीं के बच्चे की यह सामान्य रूटीन है, स्कूल, होमवर्क, कोचिंग के बाद उसके पास जो वक्त बचता है वह टीवी और स्मार्टफोन में खर्च होता है. माता-पिता उसे सेंट केरेंस और डॉन बॉस्कों में डाल कर निश्चिंत हो जाते हैं. वे खुद नौकरी, सोशल मीडिया और दूसरे झमेले में इतने उलझे रहते हैं कि उनके पास बच्चों से बातें करने के लिए बिल्कुल वक्त नहीं होता. बच्चे अपना फ्रस्ट्रेशन बतायें तो किसे बतायें. हम जहां जाते हैं, बच्चे फट पड़ते हैं और सबकुछ बता देना चाहते हैं.

स्कूल की अलग समस्याएं हैं. यहां टीचर्स के अपने गुड बुक हैं, जो उस गुड बुक से बाहर है वह परेशान रहता है. लड़के अपने पीयर ग्रुप के प्रेशर में नशा करना सीख लेते हैं, लड़कियों को अगर आठवीं तक ब्वायफ्रेंड नहीं मिला तो निराशा के भंवर में डूबने लगती हैं. रंग, जाति, धर्म, सूरत हर किसी का भेद सामने आने लगता है. फिर एक्जाम का प्रेशर, नंबर कैसे अधिक से अधिक आयें, अंतहीन कथा है.

तो आखिर ऐसे हमारी नयी पीढ़ी तैयार हो रही है. और न मां-बाप को इसकी फिक्र है और न ही शिक्षकों को. सरकार की तो बात ही छोड़ दीजिये. संभवतः इसी वजह से सीबीएसई ने सभी स्कूलों में एक मनोवैज्ञानिक रखने का नियम बनाया है, मगर कितने स्कूलों में मनोवैज्ञानिक रखे गये हैं? पता कीजिये.

और हां, अगर आप अभिभावक हैं तो जाग जाइये. फोन बंद कीजिये और अपने बच्चे से बतियाना शुरू कीजिये. जब वह स्कूल से लौटे तो पूछिये कि स्कूल में क्या हुआ. उसके दोस्तों से मिलना शुरू कीजिये. कोचिंग औऱ ट्यूशन बहुत जरूरी है क्या यह सोचिये. अगर आपके बच्चे के पास शाम के खेलने की सुविधा नहीं है तो उसका इंतजाम कीजिये. सबसे जरूरी अपने बच्चे से पूछिये कि वह क्या करना चाहता है. किस काम में उसका मन लगता है. अपनी जिद अपने बच्चों पर मत थोपिये.






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