नीतीश कुमार का राजनीतिक भटकाव और बिहार

खबर है बिहार के बक्सर में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के काफिले पर रोड़ेबाजी हो गयी! नीतीश कुमार को तो पुलिस अधिकारियों और सुरक्षा गार्ड्स ने सुरक्षित बचा लिया, लेकिन पुलिस के कई अधिकारी घायल हुए हैं. बाद में पुलिस के जवानों ने भी जनता की अच्छी खबर ली.
फौरी तौर पर आप नीतीश कुमार को गलिया सकते हैं कि सुशासन बाबू की कथनी के अनुसार करनी नहीं है. और रोड़ेबाजी की घटना की निंदा करते हुए यह भी कह सकते हैं कि इसके पीछे विरोधी दल के उकसावे की राजनीति होगी. संभव है दोनों बातों में सत्यता हो. लेकिन मेरी अपेक्षा नीतीश कुमार से है. वे सुलझे हुए राजनेता है. राजनीतिक जोड़ घटाव उन्हें खूब आता है. राजनीतिक जीवन को स्वच्छ बनाए रखना भी वह अच्छी तरह जानते हैं, लेकिन यह बात भी सच है कि जनता की अपेक्षाओं पर वह अब खरे नहीं उतर पा रहे हैं. सत्ता हासिल करने के शुरुआती सालों में उनकी जो चमक थी, वह काफी मलिन हुई है, लेकिन निर्विवाद रूप से वह आज भी बिहार में सर्वोत्तम हैं.
खबर है, आजकल वह सलाहकारों की आँखों और दिमाग पर ज्यादा भरोसा करते हैं, नतीजा है सत्ता का संचालन जैसा पहले था, अब नहीं रहा, जगह जगह हिचकोले खा रहा है. नीतीश कुमार आम आदमी से नेता बने हैं, इसलिए बिहार की हकीकतों से वो परिचित नहीं हैं, ऐसा नहीं है. इसी वजह से सड़क, सुरक्षा और स्वास्थ्य के स्तर पर उनका काम दिखता है. गाँव गाँव बिजली पहुंचाने के मामले में भी वह काफी सफल रहे, लेकिन कृषि और शिक्षा के मामले में वह ढपोर शंख साबित हुए हैं. बार बार उन्होंने कृषि का रोडमैप जरूर बनाया-बनवाया, लेकिन सतह पर किसान पहले जैसा ही भगवान भरोसे रहा.
मुझे नहीं मालूम कृषि को लेकर उनकी दृष्टि और समझ को पुष्ट करने के लिए कौन कौन सलाहकार हैं, लेकिन जो नतीजा पिछले 12 सालों में सामने है, उससे साफ़ पता चलता है कि हवाई लोग ही उनके साथ हैं या फिर वैसे लोग हैं, जो मानते हैं कि कृषि के रास्ते राज्य में विकास को दुरूस्त नहीं किया जा सकता. चिंता की बात है कि दोनों किस्म के लोग नीतीश कुमार की इच्छाशक्ति और चाहत के खिलाफ काम कर रहे हैं.
बिहार में कृषि एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जो प्रदेश को तरक्की और खुशहाली के रास्ते पर ले जा सकता है, क्योंकि बिहार की मिट्टी उपजाऊ है और नदियों का जाल होने की वजह से पानी की कोई कमी नहीं है. बिहार के लोग खेती कार्य में कुशल हैं, यह भी किसी से छुपा नहीं है. किसी को संदेह हो तो पंजाब और हरियाणा के किसानों से पूछ सकते हैं. लेकिन कृषि और किसानों के उत्थान के लिए बिहार सरकार का नजरिया अस्पष्ट और पूर्वाग्रही है.
सिर्फ उपज के सहारे कृषि को लाभ का काम नहीं बनाया जा सकता, लेकिन सरकार की लगातार कोशिश यही रही है, जबकि बदलते वक्त के साथ जरूरी हो गया है कि किसानों को उपज तक सीमित रखने के बजाय बाजार से भी जोड़ते. किसानों को बाजार के मुनाफे में स्टेक होल्डर बनाए बिना कृषि का उन्नयन असंभव है. नीतीश कुमार को करना ये था कि ब्लॉक स्तर पर फूड प्रोसेसिंग यूनिट्स लगवाते, जिसमें सरकार पूंजी के स्तर पर मदद करती और किसानों को उपज के आधार पर पार्टनर बनाया जाता. मैनेजमेंट में किसानों की भागेदारी ज्यादा होती और सरकार के मार्केटिंग से जुड़े अधिकारी उनका दिशा निर्देश करते. इससे किसानों को ज्यादा मुनाफ़ा मिलता और उनके बच्चों को वहीं रोजगार भी मिलते. किसानों के एमबीए लड़के किसी गुप्ता जी की चिप्स कंपनी का मुनाफ़ा बढाने के बजाय अपने पिता के आलू की उपज को सही कीमत दिलवाते. लेकिन नीतीश कुमार ने इस दिशा में सोचा तक नहीं.
शिक्षा के स्तर पर भी वह कुछ नया कर पाने में असमर्थ रहे हैं. अभिभावकों में सरकारी स्कूलों की शिक्षा की लेकर रोष है, तो शिक्षकों में वेतन को लेकर. आज बक्सर में जो रोड़ेबाजी हुई है, उसके पीछे शिक्षकों के आक्रोश को ही शुरुआती तौर पर वजह माना जा रहा है. लेकिन दुखद है कि शिक्षा और कृषि के स्तर को सुधारने की जगह दहेज़ और बाल विवाह जैसे सामाजिक सुधार के मुद्दे को सरकार का एजेंडा बना लिया गया है. शासन का काम सामाजिक सुधार से ज्यादा जरूरी शासनिक और प्रशासनिक सुधार पर ध्यान देना है, लेकिन नीतीश कुमार ऐसा नहीं कर रहे हैं, यह उनका राजनीतिक भटकाव है. नीतीश कुमार को इस बात पर चिंतन करना चाहिए. जो ऊर्जा वह शराब बंदी, दहेज़ उन्मूलन और बाल विवाह को रोकने में लगा रहे हैं, उतनी ऊर्जा अगर शिक्षा और कृषि को सुधारने में लगाते, तो जैसी प्रशंसा उन्हें सड़क, बिजली और अपराध नियंत्रण के लिए मिल रही है, उससे कहीं अधिक प्रशंसा उन्हें इन कामों के लिए मिलती और संभव था बिहार दूसरे राज्यों के लिए रोल मॉडल हो जाता. काश कोई नीतीश कुमार को यह समझाये. (आलेख Dhananjay Kumar के फेसबुक पेज से साभार )






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