बदलती राजनीति को पहचानिए जनाब
संजय तिवारी
एक होते थे डॉ एबी वर्धन। डॉ साहब उत्तर भारत में साम्यवाद के ढहते किले के आखिरी स्तंभ थे। जब उत्तर भारत में बीजेपी का उभार हुआ तो सेकुलर राजनीति की बंदरबांट में बर्धन साहब राजनीतिक रणनीतिकार की भूमिका में पहुंच गये। लेकिन ज्वार इतना जबर्दस्त था कि कोई नीति या रणनीति काम आयी नहीं। फिर भी बीजेपी केन्द्र में सत्ता से अभी दूर थी इसलिए पटना की एक रैली में उन्होंने पहली बार भारत की जनता की तारीफ की और कहा कि वह राम और राम की राजनीति कहनेवालों में फर्क करना जानती है।
लेकिन वह समय और था। यह समय मोदी का है। पूर्ण बहुमत भी है और सौ सौ तकलीफ सहकर भी जनता का मोह मोदी से भंग नहीं हो रहा। पता नहीं बर्धन साहब जिन्दा होते तो क्या कहते लेकिन बर्धन के वैचारिक वंशज अपनी खीझ मिटाने के लिए धर्म धर्म में फर्क पैदा कर रहे हैं। मसलन हिन्दू धर्म महान है लेकिन हिन्दुत्व खतरनाक है। भारत तो सनातन धर्म वाला देश है। हम हिन्दू तो हैं लेकिन हिन्दुत्ववादी नहीं है। हिन्दुइज्म और हिन्दुत्व में फर्क होता है। आदि आदि।
इन चालाकियों और गप्पबाजी का कोई मतलब नहीं है। सत्ता हाथ से चली गयी है तो अलबला रहे हैं| इन्हें और इनके राजनीतिक लालुओं को यह बात समझ आ गयी है कि अब देश में अल्पसंख्यकवाद वाला इनका फूट डालो और राज करो का सिद्धांत काम नहीं कर रहा है। इसलिए अब हिन्दू में साफ्ट और हार्ड का पांसा फेंक रहे हैं।
आपको समझना चाहिए कि आपकी राजनीति के दिन बीत गये बरखुरदार। आपको लगता है कि मोदी आखिरी है तो भूल सुधार कर लें। मोदी आखिरी नहीं है। मोदी से शुरुआत हो रही है। देश का पोलिटिकल डिस्कोर्स चेन्ज हो चुका है। कल तक चुनाव में मुसलमान जीतने की गारंटी होते थे आज हारने का सबब बन गये हैं।
यकीन न आ रहा हो तो गुजरात का चुनाव देख लें| गुजरात में नौ प्रतिशत मुसलमान हैं लेकिन इस बार कांग्रेस ने भी नौ मुसलमानों को टिकट नहीं दिया है। बीजेपी से तो खैर मुसलमान उम्मीद भी नहीं करते लेकिन कांग्रेस ने क्योंकर दूरी बना ली? उसने सिर्फ छह मुसलमानों को ही मैदान में क्यों उतारा?
राजनीतिक दलों के लिए राजनीति खेती होती है और फसल होती है वोट। वह वोटों की खेती करता है| कल तक मुस्लिम मत संगठित होकर मतदान करता था इसलिए राजनीतिक दल उसके पीछे पीछे चलते थे। आज हिन्दुओं का एक वर्ग संगठित हो गया है तो पार्टियां उसके पीछे चलेंगी। उन्हें इससे मतलब नहीं होता कि इफ्तारी ज्यादा खायें कि मंदिर चलकर जाएं। जिस बात से उनके जीतने की गारंटी होती हो, वे वही करने लगते हैं। इसलिए इस बदलते राजनीतिक वातावरण को पहचानिए। जो पहचानेगा वह पार हो जाएगा, जो नहीं पहचान पायेगा वो समय की धारा में डूब जाएगा। -with thanks from visfot.com
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